गुरुवार, 14 अगस्त 2014

अंगने में हेरायल : अपना के तकैत



पहिने किछु प्राथमिक निवेदन 


कोनो समुदाय के मन के बूझ’ लेल साहित्य सँ अधिक विश्वसनीय आधार की भ’ सकैत अछि? ताहू में कविता त’ हमरा जनैत ओहि समुदाय आ समाज के भाव-सत्ता तक पहुँच बनेवा’क सब सँ भरोसगर माध्यम होइत छैक। कविता पढ़ै सँ पहिने हमरा मन में सदिखन ई जिज्ञासा ठाढ़ भ जाइत अछि जे कविता अपना समय सँ राजनीति क संवाद होइत छैक आ की कविता समय सँ समाज क संवाद होइत छैक? भ’ त इहो सकैत अछि जे एहि दूनू क संग-संग आ ई दुनू सँ इतर कविता में अन्यो भाव-प्रसंग क लेल जगह बचैत वा बनैत होइक! ई जिज्ञासा तखन आर गहींर भ’ जाइत अछि जखन मैथिली भाषा में लिखल कविता के पढ़वाक प्रयास करैत छी। कारण ? कारण ई जे हमरा जनैत मैथिली समाज अपन मूल रूप में अखनो एकल समाज अछि। खास’क साहित्यक प्रसंग मे। राजनीतिक आ अर्थनीतिक स्तर पर सामाजिक जीवन के नीक-बेजाए ढंग सँ प्रभावित करैक मिथिलेतर प्रसंग भले सक्रिय होमए आ एहि बाटे भने ओकरा माथा के मिथलेतर ताकत मथैत होमए मुदा ई त’ कहले जा सकैत अछि जे ओहि प्रभाव’क साहित्यिक अभिव्यक्ति में अन्य सामाजिक’क कोनो साक्षात येगदान वा दखल नहिं होइत छैक। मैथिली साहित्य आ कविता क’ रूप आ तत्त्व रचना निरपवादत: मैथिल मन पर आश्रित अछि। तात्पर्य जे कि दुनिया क’ दोसर व्यापक भाषा में लिख’ जा रहल साहित्य में जरूरी नहिं छैक जे ओकर लिखनिहार ओहि जाति के होथि। उदाहरण’क अंग्रेजी में लिखल जा रहल सांप्रतिक साहित्य के लेल जा सकैत अछि। अंग्रेजी में लिखनिहार जरूरी नहिं जे अंग्रेजी जाति क सदस्य होथि। एक समय ई जरूर मनल जा रहल छलैक जे आन भाषाभाषी कतेको नाक रगरलाक बादो ओहि जाति में स्वीकृतहोइ योग्य महत्त्वपूर्ण साहित्य नहीं लिख सकैत छथि। आइ ई धारणा टूटि गेल छैक। कम सँ कम अंग्रेजी आ हिंदी क उदाहरण हमारा सभक सामने में अछि। हिंदी साहित्यक समकालीन परिदृश्य के देखल जाए त महत्त्वपूर्ण कवि व रचनाकार क उच्च शृँखला में नागार्जुन, मुक्तिबोध, रांगेय राघव, फणीश्वर नाथ `रेणु', राजकमल चैधरी, च्रद्रकांत देवताले अदि सन’क अनेको उदाहरण सहजहिं भेट जाइत। ओकर कारण छैक हिंदी अपन बनावट में बहुजातीय भाषा अछि। जातीय भाषा आ बहुजातीय भाषा’क साहित्य क भाव-प्रसंग में अंतर भेनाइ स्वाभाविके। आन अंतर पर त’ बाद में चर्चा कयल जा सकैत अछि मुदा एहिठाम एतबा टाँकि रखनाइ जरूरी जे बहुजातीय भाषा अपन स्वभाव सँ राजनीतिक आ ताँइ वैचारिक संवाद’क भाव-प्रवणता बेसी होइत छैक जखनि की जातीय भाषा’क साहित्य में सामाजिक आ ताँइ संवेदनात्मक संवाद’क प्रवणता बेसी होइत छैक। बहुजातीय भाषा’क साहित्य में चेतना’क अनेक आ भिन्न स्तर होत दैक त’ जातीय भाषा’क साहित्य में संवेदना’क एक आ लगभग अभिन्न स्तर होत छैक। मुदा ई बात नैञत’ एतबे सहज छैक आ नञ एक टा सरल रेखा पर एकरा आँकल जा सकैत अछि। कहल जाइत छैक जे इजोत सोझ रेखा में चलैत अछि मुदा साहित्य में सक्रिय इजोत संवेदना क वक्र रेखा पर चलैत अछि। आजु क समय तीव्र सम्मिलन आ संगहिं बिछोह का समय अछि। एहेन समय में शुद्धता’क आग्रह’क वैधता बनि नञ सकैत अछि। एहेन समय में मैथली साहित्य में शुद्ध मैथिली मन’क सक्रियता’क अग्रह’क की अर्थ भ’ सकैत अछि ! ई सब बूझितो यदि हम मैथिली कविता में मैथिल मन के तकै’क चेष्टा कर’ जा रहल छी त’ ओकरो कारण छैक। समाज’क मन बदलि रहल छैक। शुद्धता’क आग्रह अपन स्वभावे सँ परिवर्त्तन रोधी होत अछि। मुदा परिवर्त्तन तँ दुनिया’क नियम छैक। एहि नियम’क सामने शुद्धता’क आग्रह टिक नहिं सकैत अछि। मैथिल समाज’क एहि बदलैत मन स मैथिली साहित्य’क संबंध ताकल जा सकैत अछि। एकर अपन समाज शास्त्रीय आवश्यकता भ’ सकैत छैक त’ सामाजिकता’क पुर्गठन में सेहो एकरा जोतल जा सकैत अछि। एकटा अव्याख्येय टीस आ छटपटी संग हम मैथिली साहित्य लग आब’ चाहि रहल छी। ई ककरो पर उपकार नहिं। ई सत्त अछि जे हम मैथिली साहित्य में सक्रिय नञ रहल छी। सत्त कहल जाए त’ नञ रचनाकार’क रूप में आ नञ गंभीर पाठके’क रूप में। तखन की हम मैथिली साहित्य में बाहरी छी ! कियो मानिये सकैत छथि। मुदा हम अपना केँ बाहरी नहिं बुझैत छी। कारण हम मैथिल छी त’ मैथिली साहित्य हमरा आत्माभिज्ञान में प्रामाणिक रूप सँ मदद क’ सकैत अछि। कहै’क दरकार नहिं जे आधार केकरो आत्मााभिज्ञान’क प्रामाणिक आधार दैत छैक वा द सकैत छैक ओहि आधार’क निकृष्टतमो अर्थ में ओ बाहरी नहिं भ’ सकैत अछि। त’ की हम या हमरा सनक लोक जे कोनो स्तर पर हिंदी में कोनो स्तर पर सक्रिय छथि ओ हिंदी साहित्य में बाहरी छैथ वा बाहरी भ’ सकैत छैथ! हम कहब नञ! कारण हिंदीयो हमर आत्माभिज्ञान’क आधार तैयार करैत अछि। आइ हमर सभ’क आत्माभिज्ञान बहुआधारीयता पर अवलंबित अछि। आत्माभिज्ञान’क एकटा आर नाम अस्मिता भ’ सकैत अछि मुदा हमरा आत्माभिज्ञाने सुटगर लागि रहल अछि। तखन ई गप्प जरूर जे कतेक बाहरी आ कतेक अपन जन! ओना त’ अजुका समय एहने भ’गेल छैक जे घर नोते नञ, बाहर नोत! जँ पूँजी संपन्न छी त’ अहाँ कतौ बाहरी-भीतरी द्व्रंद्व सँ ऊपर छी। नञ छी त’ सबतरि बहरिये हेबाक मारि खइत अपरतिभ आ हबोडकार भेल घुरू। बान्ह सँ खत्ता’क उँच भ’ जेबाक आ डीही पर भगिनमान के भारी पड़बा’क समय में बाहरी-भीतरी’क द्वंद्व अपन अंतर्वस्तु आ सारांश में बदलि गेल अछि। जे राजसत्ता अपन नागरिक के नागरिक अधिकार सुनिश्चित करबा सँ मन तोड़ि रहल अछि से दुनिया भरि के पूँजी आ पूँजीपति के कल जोरि’क नोति रहल अछि आ ताञ `बाहर का आकर खा गया, घर का गाया गीत'! समाज-आर्थिक कारण सँ मैथिल जाति’क श्रम आ मेधा त आरंभहिं सँ प्रवास पर रहल अछि। एहि प्रवास में भौगोलिक आ सामाजिक दूनू स्तर पर आत्म-प्रवासन के समाहित बुझवा’क चाही। संगहिं एहि आत्म-प्रवासन केँ आत्म-निर्वासन सँ फराक सेहो बूझबाक चाही। सावधानीपूर्वक ई मानल जा सकैत अछि जे आत्म-प्रवासन कतौ-कतौ आत्म-र्विासन में बदलि जाइत छैक मुदा सबतरि नञ।

ई निवेदन बूझू’त मुखर चिंतन। अपनाकेँ टोहियेबा’क चेष्टा। एहि तरहेँ मैथिली कविता में अपनाकेँ ताकब शुरू करबा सँ पहिने आँखि मीर लैत छी। बिन कहनो बूझल जा सकैत अछि जे आँखि मीरनाइ आरँखि फोरनाइ नहिं होइत छैक।

एक संग्रह किछु विचार 

विद्यानन्द झा विचारशील व्यक्ति छथि। संवेदनशील कवि। ई हम एहि दुआरे कहि सकैत छी जे अजुका समय में जे सक्षम छथि से विचारशील नहिं हेता तँ कविता कियेक लिखताह! आ वो जँ संवेदनशील नहिं हेता त’ कविता कोना लिखि पवता! विद्यानन्द जी सक्षम छथि आ कविता लिखि पबै छथि। ताँइ ई मानै मे संकोचक कोनो कारण नहिं जे ओ विचारशील वयक्ति आ संवेदनशील कवि छथि। की हम व्यक्ति आ कवि में अंतर करबाक अतिरिक्त प्रयास क’ रहल छी? व्यक्ति आ कवि मे अंतर देखनाइ वा केनाइ उचित अछि की नहिं आ जँ उचित अछि तँ कतेक दूर तक उचित अछि ई प्रश्न बहुत नम्हर अछि। एहि अवसर पर हम एहि प्रसंग मे अपना दिस सँ आगाँ बढ़ नहिं चाहैत छी। एहि लेल कोनो दोसर अवसर क प्रतीक्षा क धैर्य राख चाहै छी। एहि अवसर पर त’ ह विद्यानन्दे जी क संग गेनाइ उचित मानैत छी। ओ कहै छथि, `हमर कविक दोसर दौर राजनीतिक कक्ष आ जीवन सँ जुड़ल बेसी अछि। अपन समयक कैकटा घटना, कैकटा बसात, कैकटा गंध, कैकटा दृश्य हमरा आलोड़ित करैत अछि आ हम कविता लिखि बैसैत छी ज्ञ् ओहिना जेना पुरान महिला टेनिस खेलाड़ी मार्टिना नवरातिलोवा मैच खेलाइत बड़बड़ाइत रहैत छलीह। तेँ हम पहिने मनुक्ख, तखन कवि। हमरा लेल पहिने जीवन, तखन कविता। तेँ हमरा मे कविमुद्राक अभाव आ हम अपना केँ गृहस्थ कविक रूप में देख' चाहब। राजनीतिक कक्ष में जीवन’क अभिव्यक्ति, चाहे काँच हो कि पाकल हो, चाहेे संवेदना के स्तर पर हो कि सक्रियता क स्तर पर हो वो ओहेन निरुद्गेश्य आ अर्थहीन त’ नहिं भ सकैत अछि जेहेन मार्टिना नवरातिलोवा मैच खेलाइत बड़बड़ेनाइ! ओ `पहिने मनुक्ख, तखन कवि' ठीक मुदा एहेन के जे पहिने कवि तखन मनुक्ख! ई संवेदनशील कविक वक्तव्य थिक कि विचारशील मनुक्ख? जिनकर होइन मुदा छैन एक कनमा भरिगर। भोग आर यथार्थ दूनू के अर्थ बदैल’क कविता क बनाओल जा रहल नव व्याकरणक परना पाठ पर गप्प फेर क लेब। अखन हम फेर विद्यानन्दजीक ई कथन मानि लैत छी जे हुनकर कविता हुनकर `कविक भोगल यथार्थ छी।' सब सँ लग हुनका लगैत छनि `कोनो चरवाहक गीत गायब अपन कविताक।' मुदा अहाँ त’ ओहि सपनाकेँ बचेबा’क प्रार्थना आ संकल्प करैत `पराती जकाँ' अंतिम टाहि सुनबैत विदा भेल छी, `प्रार्थना करैत छी / एहि क्षण हम / बचेबाक एहि सपना केँ / संकल्प लैत छी।' साधारण सपना केँ नहिं ओहि सपना केँ जे `ओ / हाथ मे दू टा काठी ल' सुइटर बुनैत अछि / नहि / सपना बुनैत अछि' ।

मार्टिना नवरातिलोवा मैच खेलाइत बड़बड़ेनाइ आ चराउर में चरवाहक गीत गेनाइ’क बीच जे परती जमीन ताहि पर `पराती जकाँ' जे गीत ओ भोग आ यथार्थ दूनू के नव अर्थ दैत से संभव। `पराती' में ई अवश्ये असंभव मुदा जे `पराती' नहिं `पराती जकाँ' ओहि में त’ सब किछु संभव तेँ इहो संभव। चयनकर्त्ता आ संपादन केनहार मोहन भारद्वाज क मंतव्य अवश्ये विचारणीय। मोहन भरद्वाजक शब्द मे, `विद्यानन्द झा जेँ लोक-जीवनक कवि छथि तेँ हुनक रचना मे ओ जीवन सम्पूर्णता मे भेटैत अछि। यैह दृष्टि हुनक कविताक परिचय थिक। सही मैथिली कविताक परिचय सेहो।' विद्यानन्दजी लोक-जीवनक कवि छैथ! कोना? एहि घोषणा क आधार स्पष्ट नहिं आग्रहक आधार त’ नहिं मुदा आग्रहक निहितार्थ बूझबाक प्रयास कयल जा सकैत अछि। कविक सावधानी केँ चयनकर्त्ता आ संपादन केनिहार मोहन भारद्वाज ध’ क’ चलल रहितथि त’ ओहो कहितैथ जे `लोक-जीवनक कवि जकाँ छथि'। मुदा जखन `पराती' सँ बेसी प्रामाणिक आ महत्त्वक `पराती जकाँ' के साबित करवाक हड़बड़ी हो त’ लोक-जीवनक कवि जकाँ के हठात् लोक-जीवनक कवि घोषित क देनाई में आश्चर्य तकनाइ सँ बेसी जरूरी एहि कथन केँ आश्चर्य जकाँ नेनाइ नहिं हेतैक? ई ठीक जे उत्तर-आधुनिकता अपन मिजाज मे बहुत किछु पूर्व-आधुनिकता सेहो अछि। एकर की कएल जा सकैत अछि जे एके माघे भलहिं निभल नहि जा सकैत हो मुदा सब माघ एके ढंगक नहिं होइत अछि। उत्तर-आधुनिकता मे निहित पूर्व-आधुनिकता अपन बुनावट में आधुनिकता-पूर्व क’ स्थिति के हासिल नहिं क’ सकैत अछि। हँ ई आधुनिकता-पूर्व जकाँ भ’ सकैत अछि। भ’ सकैत अछि, तैयो ई बाधा त’ रहबे करत जे आधुनिकता-पूर्वक जीवनक संपूर्ण सत्ता लोक-जीवन नहिं छल! तखन ई जरूर जे आधुनिक-जीवनक नागर-स्वरूप क संवेदनाक भिन्न-स्तरीयता केँ चिन्हैत आधुनिकता लोक-जीवन सँ फराक भ’ गेल। जीवन के लोक आ लोकेतरे के चिन्हनाइ त’ आधुनिके नजरि सँ संभव भ’ सकैत अछि। जाहि कवि के भारतीय शास्त्रीय गीत सूनब खूब रुचैत छै ओहि कवि के मैथिल लोक-जीवनक `सम्पूर्ण सत्ता' केर संधान चयनकर्त्ता आ संपादन कर्त्ता क अद्भुत आ उद्भभट प्रतिभे सँ संभव हमरा संदेह अछि जे कतेक पाठक में हुनकर घोषणा सँ सहमत होएवाक ई अद्भुत आ उद्भभट प्रतिभा हेतैन।

मुदा विद्यानन्दजीक कविताक टीस मैथिल-जीवनक टीस के अवश्ये अभिव्यक्त करैत अछि। मैथिल-जीवन मे बहुत तेज परिवर्त्तन घटित भेल अछि। ई परिवर्त्तन अनतहुँ लक्षित कएल जा सकैत अछि। नवका बसात एहेन जे जीवनक छोट-छोट आ अपन वैभव के हिलकोरिक बड़का में मिला द’ जीवन के सार-हीन क’ रहल अछि। सार सोखिनिहार एहेन समय मे कवि मे एहि बसात के चिन्हबाक संवेदना आ एहि कटानक हाहाकर के ताकीद करैत पूछैत अछि जे, `आर कतेक दिन / जखन / कैथनियाँ पहिने हैत / पटना एक सै चारि / आ तखन दिल्ली एक हजार चारि / आ फेर / अमेरिका एक लाख चारि। / / आर केतक दिन ?' 

भारत क विभिन्न समाजक मनोभाव वा मूल्यबोध मे आजादीक बाद सँ एकटा परिवर्त्तन भेनाई शुरू भेल छलैक। मैथिल समाजक मनोभाव मे सेहो परिवर्त्तन भेनाई शुरू भेल छल। भारतक विभिन्न समाजक आंतरिक संरचना मूल्यबोधक अपन वैषिष्ट्य छैक। परिवर्त्तन का असर वोहि वैशिष्ट्य मे सबस अधिक भेेनाइ शुरू भेल छलैक। आर्थिक दृष्टि सँ मिथिलाक एकटा भिन्न स्थिति पर ध्यान देनाई आवश्यक। शस्य-श्यामला मिथिलांचल मे खाद्यान्न आ खाद्यांशक सिंह-भाग कृष्येतर स्रोत सँ भेट जाइत छलैक। बारी मे साग, डबरा मे माछ, चार पर कुम्हर-कदीमा-सजमनि, टाट पर लत्ती-फत्ती, प्रकृति संपोषित मैथिल-जीवन अपना माटि पर पराती गबैत सांसारिक दुखक फसिल के संतोषक बरद जोति दाउन करैत भाँगक संगे घेंटि लैत छल। गरदनि मे झुलैत रुद्राक्ष आ कंठ सँ निकलल नचारी सँ मिथला क बसात गनगनाइत रहल छल। आत्म-निर्वासन आ आत्म-प्रवासन ओकरा चित्त क स्थाई भाव छलैक। मिथला मे आर अकटा मिथला छलैक ▬▬ आइ जकरा दलित, पिछड़ा मिथला कहल जा सकैत अछि। अर्थात द्विज-कायथेतर मिथिला। एहि स्थिति सँ अनभिज्ञ रहनाई, आइ निश्चिते अपराध। तखन ई जरूर जे मिथलाक सामाजिक अंतर्बद्धताक अपन वैशिष्ट्य सेहो छलैक। मध्य आ पश्चिम भारतीय जनपदक सामाजिक अंतर्बद्धताक तुलना मे एहि वैशिष्ट्य के अलग सँ चिन्हित कयल जा सकैत छलैक। मुदा समयक संग एहि वैशिष्ट्य मे भारी क्षरण सँ सेहो मुहँ फेरनाइ ठीक नहिं। पहिने `दिल्ली एक हजार चारि' होइत जैबाक प्रक्रिया आ फेर अजुका भूमंडलीय बसात मे `अमेरिका एक लाख चारि' होयबाक प्रक्रियाक कारस्तानी के चिन्ह पड़त। की हम एहि लेल तैयार छी? कोनो हड़बड़ी नञ मुदा आइ नञ त काल्हि कह’ जरूर पड़त! दुनियाक सब समाज एक बेर फेर आत्मान्वेषणक प्रक्रियाक सम्मुखीन अछि त एकर कारणो छैक। `अमेरिका एक लाख चारि' होइत मिथिला मे मिथलाकेँ फेर सँ ताक’ जरूरे पड़त। एहि आत्मान्वेषणक अभाव मे आत्मगठन संभव नहिं। आत्मगठनक पुनर्प्रक्रिया के प्रारंभ केने बिना निस्तार नहिं। पुनर्नवा नहिं भेला पर वृद्धा मैथिली अंतत: गनैत रहि जेती मुखिया'क फाँट। बिन कहनो बूझले जा सकैत अछि जे एहि दुर्दिन मे मुखिया, पटना-दिल्ली मे नहिं, अमेरीकाक राजधानी में मचान लगौने छथि। ताञ ई बुझनाई जरूरी जे किये कवि अकानैत छथि जे, `भ' सकैए / गनैत होथि / वृद्धा पेंशनक डेढ़ बीसी टाका / आ ओहि मे मुखियाक फाँट' ।

आजादीक आंदोलनक संघर्षक बीच सँ एकटा नव आधुनिक भारत राष्ट्रक उदय भ’ रहल छल। भारत के आधुनिक मूल्यबोध सँ संपन्न समतामूलक भारतक स्वप्न एहि संघर्षक बीज स्वप्न छल। मिथला सेहो एहि स्वप्न आ संघर्षक संग आगू बढै लेल तत्पर छल। मुदा जल्दिये ई स्वप्न आ संघर्ष बउआइत-बउआइत अंतत: विपथित होइत गेलैक। एतै पैघ विपथन आ दुर्घटनाकेँ मैथिलीक कविता पर केहेन प्रभाव पड़लैक से अलग सँ पड़ताल का वस्तु। मुदा एकर नतीजा कविता मे अभिव्यक्त भेल जे, `बाबू / '52 में पढ़ैत छला / मार्क्स आ लेनिन / करैत छला बहस / सत्ता हस्तांतरण पर, / बाबू / आइ ध' लेलनि अछि / सूत्र वाक्य - / राड़ं घोड़ं एड़ं पवित्रं / जे भेटल छलनि हुनका / मरौसी में। / / बहिन / '67 में छोड़ चाहैत छली / स्कूल / बाँटि देब' चाहैत छली / अपन हिस्सा जमीन / मुसहर सब मे / बहिन / आइ जोखै छथि / खखरी घान बोनि मे / खियेलहा बटखरा ल' क'। / / हम आइ लिखैत छी कविता / अन्हारक विरुद्ध / आ देखैत छी स्वप्न / इंद्रधनुषक, / मुदा हमही / कौखन / देखैत छी आपन मन मे / कामदृश्य / ओहि बोनिहारिनक संग / जकर माय पियौने छलि दूध / हमरा तीन मासक अवस्था मे।' समताक स्वप्न आ संघर्ष बउआइत-बउआइत रापथ पर चढ़ै लेल अधीर मुदा, `तय ई तँ कथमपि नहि भेल छलै / जे घुसि जाइ हम / कोनो गली-कुची बाटे / राजपथ पर' । राजपथ पर गति-मतिक अपन माया संसार भवसयाइत रहैत छै। आक्रोशक लेल ई माया संसार वर्जित प्रदेश होइत छैक आ दुखो फुटली आँखि नञ सोहाइत छैक। कविता साक्षी मे कहल जा सकैत अछि जे `हमरा दु:ख एहू बात बातक अछि / जे / हमर ई दु:ख / नहि रूपान्तरित भ' सकल आक्रोश मे, / ई नपुंसक मुद्रा तँ / अभीष्ट नहि छल हमरा।' तखन जँ दुख भेल त’ ओहि दुखो के बचाके रखनाइ जरूरी। एहि लेल पैघ मन चाही। छोट मन मे नञ नोरे अरघै छै आ नञ खिल-खिल हँसीक अनुगूँजे टीकैत छैक। एहि लेल सब केँ सचेष्ट रह पड़त किएकत’ जल्दिये `मुदा फेर / फेर जन्म लेत / एकटा नव घनगर पलाश-वन / आ फेर फुलायत / आक्रोश सँ आरक्त / कोनो खेतिहर मजदूरक मुहेठ / सन लाल / पलाशक फूल।' 

एकटा कठिन-करेज समय मे नव पीढ़ी आँखि खोलैत आत्म-संबोधोनक मुद्रा मे पश्चाताप क सकैत अछि जे `एहना समय मे / अयलहुँ अहाँ / जखन / जखन दूध पी रहल छल / मूर्त्ति सभ / अवाक् पीबि रहल छल लोक / एहि दृश्य केँ / कोनो मसीहाक प्रतीक्षा मे / आ खून पीबि रहल छला / धर्मक ठेकेदार सभ / नुकायल भाँति-भँति रंगक चोंगा मे।' मुदा ई विश्वास आ बुझबाका उहि सेहो आसानी सँ अर्जित कएल जा सकैत अछि जे `मूर्त्ति' के चाहे कतबो मन दूध पिआओल जाए ओकरा विचारक पहाड़ मे नहिं बदलल जा सकैत अछि। आ कारी काया सँ पलाशक लाल फूल दूध पीनहुँ बिन वन के अपन संवेदनाक गहीर रंग मे रंगि दैत छैक। विद्यानन्द झा क कविता विचारक पहाड़ के कटैत संवेदनाक फूलायल पलाश-वन क संधान करैत छथि। एहि छलकारी समय मे जतबे गति चाही ततबे धैर्य। गति मे स्थैर्य आ स्थैर्य मे गतिक धैर्य अजुका कविताक एकटा जरूरत छैक। आशा कयल जा सकैत अछि जे मैथिली क कवि एहि सामाजिक आ ताञ काव्य जरूरत के अवश्ये चिन्है छथि।

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