शनिवार, 9 अगस्त 2014

सूखल नयन नदी हियमे मरुभूमिक घोर बिहाड़ि

(प्रगतिशीलता आ किरणजी/ प्रतिमान, पटना'क आयोजन दिनांक 25-26 नवंबर 2006 मे पढ़ल आलेख)

प्रगतिशीलता: किछु सामान्य प्रसंग

सभ्यताक मूल्यबोध
सभ्यता मानव जीवनक निरंतर विकसनशील आधारशिला होइ छै। सभ्यताक विकास सामाजिक विकासक रूप मे प्रकट होइ छै। सामाजिक विकासक क्रम मे संबंध तंतु बदलैत रहै छै। समाजक संघटन में अनुस्यूत संबंध-तंतु मे भ रहल बदलाव के संभव करवा मे सांस्कृतिक आर दार्शनिक मूल्यक रूप मे प्रगतिशीलताक अपन महत्त्व छै। सामान्य रूप सँ कहल जा सकैत अछि जे कोनो समाज में प्रगतिगामी एवं प्रतिगामी, दुनू प्रवृत्ति सक्रिय रहै छै। सभ्यताक इतिहास एहि बातक साक्षी अछि जे सभ्यता विकासक प्रत्येक चरण मे प्रगतिशील शक्ति के, पूर्ण विजय त नहिं, मुदा सक्षम बढ़त अवश्ये हासिल होइत रहल छै। मानि लेबा में कोनो आपैत नहिं जे पारंपरिक रूप सँ ई दुनू प्रवृत्ति अपन सक्रियताक अधिकांश मे सचेतन नहिं होइ छै। सामाजिक सचेतनताक सही दिशा मे संप्रसारक लेल प्रगतिशील प्रवृत्तिक लोक सक्रिय रहैत छैथ। जत सँ एहि मे सचेतनता क प्रवेश होइ छै आ जाहि मात्रा मे होइ छै, ओतहिं सँ आ ओहि अनुपात मे द्वंद्व सामाजिक चिंतनक फरीक बनै छै। एहि द्वंद्वक तीव्रताक अनुपाते प्रगतिशीलता क तत्त्व एवं अंतर्वस्तु मे गुणात्मक बदलाव लक्षित हुअ लगै छै। ई बदलाव सामाजिक बदलावक रूप मे चिन्हार होइ छै।

चेतन आ अचेतनक आनुपातिक क्रम चाहे जे होइ, समाज बदलावक प्रक्रिया हरदम जारी रहै छै। समाज बदलावक एहि प्रक्रिया मे राजनीति प्रत्यक्ष वा परोक्ष रूप सँ निश्चिते सक्रिय रहै छै। सामाजिक बदलावक रूप के चिन्हक ओकरा आकांक्षित रूप आ गति देनाइ मुख्यत: राजनीतिक प्रक्रिया होइ छै। ताञ, सामाजिक बदलाव आर्थात मानवीय संबंध आ सरोकार में सकरात्मक बदलावक मूल्य समुच्चयक रूप मे प्रगतिशीलताक राजनीतिक रूप के बुझनाइ जरूरी भ जाइ छै। राजनीति निरपेक्ष सांस्कृतिक स्वायत्तताक सवाल उदात्त एवं अपन भावना प्रधान उच्चाशय एवं तेजस्विताक संग बेर-बेर उपस्थित होइ छै। रोजी-रोटी समेत जीवनक समस्त आधारभूत प्रसंग मे स्वायत्तताक दर्शन कें स्थगित एवं राजनीतिक परिप्रेक्ष्य सँ नियमित होइत देखि सांस्कृतिक स्वायत्तताक सवाल आ तर्क स्वत: निस्तेज भ जाइ छै। स्वभावत: प्रगतिशीलताक राजनीतिक आयामकेँ अस्वीकारक धूर्त्तताकेँ एक दोसर तरहक राजनीतिक प्रसंगक रूप मे बूझल जा सकैत अछि। तात्पर्य ई जे वास्तव मे सांस्कृतिक प्रवाह, सामाजिक यथार्थ, संघर्ष आ स्वप्नक संश्लेष सँ राजनीति के सावधानीपूर्वक जोड़िक प्रगतिशीलताकेँ बुझनाइ जरूरी। संक्षेपे मे सही मुदा, ई साफ करैक दरकार बुझना जाइत अछि जे प्रगतिशीलता समाजक अन्य उद्यमशीलता एवं वास्तविकता के अन-अन्य एवं अविच्छेद्य रूपमे स्वीकार करै छै आ एकरा बीच मे अंत:सक्रिय अंतनिर्भरताक आधार एवं तत्त्व के पोसैत छै। समाज विकासक मूलाधारक नवोन्मेष के मुख्य रूप सँ सचेत राजनीति पुनर्संयोजित करैत अछि आ सचेत साहित्य एहि पुनर्संयोजनक सामाजिक स्वीकृति लेल समाजक मन मे नव जगह बनबैत अछि। प्रगतिशीलताक मूल आशयकेँ देशकालक राजनीति एवं संस्कृति सँ निरपेक्ष स्वायत्तता मे नहिं, बरन राजनीति आ संस्कृतिकक सापेक्ष अंतर्निर्भरता के स्वीकार कइएक हासिल कएल जा सकै छै।

समाज, स्वप्न, संघर्ष आ संघात
प्रत्येक समाजक विकास भिन्न ऐतिहासिक परिस्थति मे होइ छै। ऐतिहासिक परिस्थितिक भिन्नता प्रथमत: समाजक बाह्य यथार्थ के आ अंतत: किछु दूर तक ओकर आंतरिक चरित्रकेँ भिन्न-भिन्न स्वरूप प्रदान क दै छै। बाह्य यथार्थ आ आंतरिक चरित्रक भिन्नता कइएक बेर समाजक अपन वैशिष्ट्यक रूप मे स्वीकृति पबै छै। एहि वैशिष्ट्य मे समाजक अस्मिताक आधार बनवाक तीव्र प्रवणता होइ छै। अस्मिताक आधारक रूप मे स्वीकृति पाबिक ई वैशिष्ट्य कइएक बेर सामाजिक स्वप्नक हिस्सा बनि जाइ छै। एहि स्वप्न मे समाजक सब अवयवक लेल समुचित स्थानक अभाव सँ सामाजिक संघर्ष आ संघात तकक वातावरण बनि जाइ छै। अंतरविभंजित समाज मे सामाजिक संघर्ष आ संघातक वातावरण अपेक्षाकृत अधिक आसानी सँ बनि जाइ छै। सभ्यता संघर्ष आ संघातक ई प्रक्रिया समाजक बाह्य-भूमिक निषेघ त करिते छै सामाजिक अंत:करणमे एहेन अनिवार्य दुर्घर्ष संकोचन उत्पन्न करैत छै जे अंतत: `सामाजिक ब्लैक' होल के रूप मे प्रकट होइ छै। समाजक प्रगतिशील चेतना आ मूल्यबोधक अधिकांश एहि `सामाजिक ब्लैक होल' मे समाहित भ निरर्थक भ जाइ छै। ताञ, प्रगतिशील चेतना आ मूल्यबोध सभ्यताक आधारशिलाक संघाती रेखा (Fault Line) आ सामाजिक ब्लैक होलक खतरा के नीक जकाँ चिन्हैक कोशिश करै छै। अंत:करण केँ रणभूमि मे बदलि गेनाइ सँ पैघ दोसर कोनो दुर्घटना सामाजिक जीवनमे नहिं भ सकै छै! स्वभावत: प्रगतिशील मूल्यबोध अपन संघात-समंजन (Conflict Management) क आंतरिक शक्तिक आधार पर स्वप्न, संघर्ष आ संघातमे सामंजस्यक संधान करै छै। एहि संधानक क्रममे प्रगतिशीलता समाजक बाह्य-भूमि सँ निषेधक संबंधकेँ बदलि सहकारक संबंध विकसित करैत सामाजिक अंत:करणकेँ अंतर्बाधित रणभूमि सँ बदलि वास्तविक रूपेँ निर्बाध जनभूमि (Public Sphere) मे बदलवाक चेष्टा करै छै। रणभूमिकेँ जनभूमि मे बदलनाइ प्रगतिशीलताक प्राथमिक दायित्व होइ छै। ई गप्प दोसर जे शोषण पर आधारित समाज मे रणभूमिकेँ जनभूमि मे बदलबाक प्रक्रिया कइएक बेर दुनिर्वार रणप्रक्रियाक अनिवार्य रूप मे प्रकट होइ छै।

ध्यान देबाक कथा ई जे प्रत्येक समाजमे सामाजिक यथार्थ आ मूल्यबोधक भिन्नताक आधार पर प्रगतिशीलताक अंतर्वस्तुमे सेहो गुणात्मक अंतर होइ छै। हम ई विशेष रूप सँ ध्यान मे लाब चाहै छी जे व्यवहारत: मैथिल समाजक, आ ताञ मैथिली साहित्योक, प्रगतिशीलताक गुणात्मकता कोनो अन्य समाज आ साहित्यक प्रगतिशीलताक गुणात्मकता सँ तुलनीय त निश्चिते भ सकै छै मुदा कोनो हालतमे अन्य समाज आ साहित्यक प्रगतिशीलताक गुणात्मकता एकरा लेल अनिवार्य निकष नहिं भ सकै छै। दोहराक आ फरिछाक कह चाहै छी जे, अन्य समाज आ साहित्यक प्रगतिशीलताक गुणात्मकता मैथिल समाज आ मैथिली साहित्यक प्रगतिशीलताक गुणात्मकताक मान निर्धारणक निकष नहिं भ सकै छै। प्रगतिशील चिंता आ चेतना सँ संपन्न विद्वान लोकनि द्वारा अतीत मे एहि तरहक कएल आर बेर-बेर दोहराओल गेल गलती के बुझबाक आ ओहि सँ साग्रह बचबाक रास्ता तकबाक चाही। प्रगतिशीलताक मैथिल संस्करणक संधान एक तरहक सांस्कृतिक दायित्व अछि। ध्यानमे इहो रखनाइ जरूरी जे प्रगतिशीलतामे वैज्ञानिकताक तत्त्व सक्रिय रहै छै। ई वैज्ञानिक युग थिक। एहि बात के हम अधिक साफ-साफ बुझि सकै छी जे साहित्यमे वैज्ञानिकता आ वैज्ञानिक सिद्धांत निर्धारणक प्रक्रिया भौतिक विज्ञान सँ मौलिक रूपेँ भिन्न होइत छैक। हमरा ई कहबाक जोखिम उठाब दिअ जे आइ जीवन विज्ञान सँ खाली समृद्धे नहिं अछि अपितु वैज्ञानिक समृद्धि सँ शतश: आक्रांत सेहो अछि। हमरा मन मे बेर-बेर ई प्रश्न उठैत अछि जे सामाजिक जीवनक प्रत्येक क्षेत्रमे विज्ञानक संपूर्ण दखल किए हेबाक चाही ! शेष सृष्टि आ समतमूलक सामाजिकता सँ मानव संबंधक मधुरता एवं दृढ़ताक विकासमे जते दूर तक सहायक ओते दूर तक वैज्ञानिकता निश्चिते स्वीकार्य। मुदा जीवनक आनंद सब समय वैज्ञानिक मनोभाव सँ उपलब्ध नहियो भ सकै छै। ई बूझबा आ मानबा मे कोनो आइ भाँगठ नहिं होएबाक चाही जे वैज्ञानिक दृष्टि सँ कमला-बलान आन छैथ, साहित्यिक आ संस्कृतिक दृष्टि सँ आन छैथ!

साहित्यक अपन एकटा भिन्न विज्ञान होइत छैक। एहि वक्तव्यकेँ अहाँ सभक समक्ष रखैत हम नीक जकाँ बूझि रहल छी जे एहि संदर्भ मे बहुत रास एहनो प्रश्न उठि सकै छै जेकर त्वरित समाधान एहि सभामे संभव नहिं। हमरा विश्वास अछि जे कोनो सभाक सार्थकता प्रश्नक समाधान हासिल होएबा पर त निर्भर करिते छै, नव समाधानक माँग करैत हासिल होबवाला अनुत्तरित सन रहि गेल प्रश्नो पर सेहो कनेमने निर्भर करै छै। एहि संदर्भ मे एतबा आँकि रखनाइ जरूरी जे विज्ञानक सत्य अपना आपमे ब्रह्मांडीय (Genaral Universal) होइत छैक साहित्यक सत्य पींडीय (Individual Unique) होइत छैक। विज्ञानक मौलिक प्रक्रिया वि-अवयवीकरणक (Exclusion) होइ छै जखैन कि साहित्यक मौलिक प्रक्रिया अवयवीकरणक (Inclusion) होइ छै। सोचबाक गप्प जे, भूखक, शोषणक अर्थ, हत्या, अन्यायक जे अर्थ व्यावहारिक राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र वा विज्ञानमे होइ छै उएह आर ओतबे अर्थ की साहित्यो मे होइ छै? जाबे तक प्रगतिशील मूल्यबोध अपन संघात-समंजनक (Conflict Management) आंतरिक शक्तिक आधार पर स्वप्न, संघर्ष आ संघातमे सामंजस्यक संधान आ संस्थापन नहिं क लैत अछि ताबे तक प्रगतिशीलताक ऊपर वैज्ञनिकताक जानमारा लदनी करैत चलि गेनाई कतेक उचित से अवश्ये विचारणीय। एत एकटा भयंकर दुश्चक्र छै। दुश्चक्र ई जे वैज्ञानिकताक बिना संघात-समंजन संभव नहिं आ संघात-समंजन भेने बिना प्रगतिशीलतामे वैज्ञानिकताक आत्मिक विकासक समायोजन संभव नहिं। एहि दुश्चक्र के शुभचक्र मे बदलल जा सकै छै। कोना? एहि पर विचार आवश्यक; अखन नहिं त कखनो। अनुभवमे हेबे करत जे जाबे नीक विचार अपन डाँड़ सोझ करै छै, ताबे अधलाह विचार भरि गाम बुलि बैन द अबै छै।

मूल्य, बासन आ वस्तु
प्रगतिशीलताक अंतर्वस्तु समाज विकासक विभिन्न चरण मे भिन्न-भिन्न बासन मे हासिल होइ छै। विद्यापतिक साहित्यकेँ प्रगतिशील अंतर्वस्तुक लेल जे बासन उपलब्ध छलै उएह बासन डा. काञ्चीनाथ झा `किरण'जी क साहित्यक लेल उपयुक्त नहिं भ सकै छलै। स्वभावत: प्रगतिशीलताक जे बासन किरणजीक लेल उपयुक्त छलनि उएह बासनकेँ हुनक समकालीन वा परवर्त्ती साहित्यकार सभक लेल उपुक्त नहिंयो भ सकबाक गुंजाइश सदिखन बाँचल रहि जाइत अछि। प्रश्न उठि सकै छै जे प्रगतिशीलता वैयक्तिक मूल्य होइ छै आकि सामाजिक ? संक्षेप मे कह चाहै छी जे शास्त्रीय रूप सँ प्रगतिशीलता सामाजिक आ सामान्य मूल्य होइ छै मुदा जीवन मे ओकर प्रतिफलन वैयक्तिक होइ छै। समाज सँ व्यक्ति तकक यात्रा करैत प्रगतिशीलता मे सामाजिकक संगहिं वैयक्तिकताक प्रवेश होइ छै। साहित्य सँ जुड़ल लोककेँ ई बुझ पड़तै जे साहित्य विचार संचालित होइतो मुख्यत: भाव प्रेरित होइत छै। हिंदी कवि मुक्तिबोधक संदर्भ लैत कह चाहै छी जे साहित्यकेँ `विचारधाराक' संगहिं `भावधाराक' सम्मान करबाके चाही। मध्यकाल में भावनाक अनुरूपेँ भगवानक मूरत देखैक अवसर छलै। प्रगतिशील विचारकेँ भावनाक लेल एतेक जगह सुरक्षित रखबाके चाही। बासनक भिन्नता सँ वस्तु नहिं बदलि जाइ छै मुदा ई सभक अनुभव मे अछि जे भावना मे अंतर वस्तुक ग्रहणीयता मे अंतर आनि दैत छै। एकटा आरो तथ्यक ध्यान रखनाइ आवश्यक जे प्रगतिशीलताक पाट बड़ चौड़ा और चंचल होइ छै। जेना कमला अपन पाट आ बाट बदलैत एलीहे तहिना प्रगतिशीलताक पाट आ बाट सेहो बदलैत रहल छै। ताञ, प्रगतिशीलताक कोनो एकहि संस्करण के प्रामाणिक मानिक साहित्यक मूल्यांकन वा प्रगतिशील मूल्यक अन्वेषण ठीक नहिं। ई ठीक जे क्रंाति किस्त मे नहिं होइत छै, मुदा सर्वोच्च सामाजिक मूल्यक रूपमेँ प्रारंभे मे प्रगतिशीलताक साहित्य मे उपलब्धि कठिन आ कखनो समाज मे अंतर्घातक सेहो भ जाइ छै। समाज घोड़ा सँ बेसी ताँगाक कुदनाइ केँ कखनो नीक दृष्टि सँ नहिं देखैत छैक ▬▬ व्यंग्य करैत छैक जे घोड़ा नञ, कूदे ताँगा! सामाजिक उपलब्धि सँ बहुत बेसी मात्रा आ गुणत्मकता मे प्रगतिशीलताक साहित्य मे उपलब्धि साहित्यक सामाजिक स्वीकार्यता के अंतत: बाधिते करैत छै।

किरणजीक साहित्यमे प्रगतिशीलताक संधान मे ई ध्यानमे रखनाइ जरूरी जे विद्यापति साहित्यकेँ किरणजी उचिते मूल्यवान मानैत छलाह। परंपरा सँ संवाद करबाक किरणजीक कौशल सँ हुनकर प्रगतिशीलताक किछु आयाम अवश्ये स्पष्ट होइत अछि। किरणजी परंपराक पानि मे `परसल माए पाय तुअ पानि' क सावधानी आ क्षमायाची मुद्राक संग उतरैत छथि। विद्यापतिक संबंध मे बेसी किछु कहबाक ई अवसर नहिं तैयो कहबाक अनुमति चाहब जे विद्यापति नवजागरणक पहिल उत्तर-भारतीय स्वर छलाह। भारतीय नवजागरणकेँ अंग्रेजक शासन आ प्रभाव सँ जोड़िक देखल जाइ छै। तखन विद्यापति मे नवजागरणक तत्त्व के तकनाइ कि अगिया बेतालक काज? औपनिवेशिक मानसिकता सँ मुक्त भ नवजागरणक धाराक उत्सकेँ, चाहे ओ अपना गोमुख पर कतबो क्षीण वा अस्पष्ट किएक नहिं होइ, फेर सँ तकबाक चाही। ई ताकुत एहि दुआरे जरूरी जे विद्यापति सँ नावजागरणक जे आकांक्षा फूटल छलै ओकर विस्तार आ विस्फोटकेँ 1857क सामुदायिक एकता आ सक्रियता सँ जोड़िक देखल जा सकै छै। 1857क बाद नवजागरणक ओहि आकांक्षा पर औपनिवेशिक शक्ति अपन कब्जा जमा लेलक। एहि कब्जाक बाद, सुनियोजित ढंग सँ एकटा एहेन नवजागरणकेँ प्रोत्साहित कएल गेलै जाहि मे पुनर्जागरणक तत्त्व अधिक प्रमुखता सँ विकसित भेलै। नतीजाकेँ देश-विभाजनक रूप मे देखल जा सकै छै। देखल जा सकै छै जे जहिना असली राष्ट्रवादकेँ स्थानापन्न, अर्थात कुत्सित, राष्ट्रवाद सँ बदलि देल गेलै, तहिना असली नवजागरणकेँ स्थानापन्न, अर्थात कुत्सित, नवजागरण सँ बदलि देल गेलै। औपनिवेशिकता सँ अभिप्रेरित स्थानापन्न राष्ट्रवादक लेल ई स्थानापन्न नवजागरण बहुत सहायक भेलै। प्रसंगवश, अखन तक आलोचना भक्तिकेँ धर्म क पसिरक भीतरक घटना मानैत एबाक गलतीकेँ दोहरबैत आयल अछि। धर्मकेँ रहितौँ जँ भक्तिक सामाजिक आवश्यकता उपस्थित भेलै त निश्चिते रूप सँ भक्ति धर्मक परिसर सँ बाहरक एवं बाहर होइत जेबाक घटना थीक। एत, विद्यापतिक संदर्भ में ई कहनाइ जरूरी जे ओ अपन इष्ट के पतिभाव सँ कबीर, सखाभाव सँ सूरदास, दासभाव सँ तुलसीदास जकाँ नहिं बरन, सेवकभाव सँ उगना रूप मे सुमिरैत छथि। उग्रनाथक उग्रता के सैंतक उगना मे तत्त्वांतरण ओहि युगक एक क्रांतिकारी दुस्साहस के रूप मे चिन्हल जा सकैत अछि। बूझल जा सकैत अछि जे भक्तिक बासन मे विद्यापतिक वस्तु कोन रूपे प्रगतिशील छल। भक्ति साहित्य मूलत: सामंतवाद आ ताञ पुरोहितवाद सँ टकराक प्रस्फुटित भेल छल, मुदा आगाँ चलिक सामंतवाद आ ओकर पुरोहितवाद भक्तिकेँ अपना कब्जा मे ललेलक। एहि सांस्कृतिक संघर्ष आ वर्चस्वकेँ बुझ पड़त। मिथकक विनियोग मे विद्यापतिक काव्य-भंगिमा किरणजीक सामाजिक दृष्टिकेँ आकार दैत अछि।

किरणजीक साहित्य आ समाजक दृष्टि मूलत: नवजागरणक अंतर्वस्तु सँ बनल छैन। सामाजिक संबंध मे बदलावक लेल समाजक संरचनागत मूल्यबोधक पुनर्निर्माण नवजागरणक मौलिक माँग के रूप मे चिन्हल जा सकै छै। प्रगतिशीलताक एक संस्करण, समाजक संरचनागत मूल्यबोधक पुनर्निर्माण मे नहिं संपूर्ण बदलाव मे विश्वास करै छै। ध्यान देब जोगरक बात ई जे `पुनर्निर्माणकेँ' अपनेआप मे `बदलाव'क दिशा मे उठाओल गेल महत्त्वपूर्ण डेग क रूप मे स्वीकार कयल जा सकै छै। हालाँकि, एहि स्वीकारमे प्रगतिशीलताक आधिकरिक संस्करण सदैव संकोची रहल अछि। असल मे, सामाजिक संरचनागत मूल्यबोधक `पुनर्निर्माण' `बदलाव' मे गंभीर आ सातत्यमूलक संबंध होइ छै। `पुनर्निर्माण' `बदलाव' मे कोनो अनिवार्य तत्त्वगत अंतर्विरोध नहिं होइ छै, कम-सँ-कम प्रारंभिक अवस्था मे नहिं होइ छै। किरणजीक प्रगतिशील चेतना के बरोबरि पुनर्निर्माणक आंतरिक दबाव सँ गुजर पड़लै। एहि दबावक कारणेँ किरणजी परंपराक प्रामाणिक पाठ तैयार करबा में अपन अनुसंधित्सु वृत्ति के सदिखन जोतने रह पड़लैन। प्रगतिशील चिंतनधारा सँ प्रतिबद्ध लोककेँ आइ एहि निश्च्छल आत्मस्वीकारक आवश्यकता महसूस हेबाक चाही जे प्रगतिशील चिंतनधाराक मुख्य ऊर्जाक अधिकांशकेँ `पुनर्निर्माण' `बदलाव'क तत्त्वगत संबंध संस्थापन मे नहिं खरचि, संबंध-विच्छेद मे खरचबाक गलती दोहराएल गेल छै। सहजेँ लक्षित कएल जा सकै छै जे, जाहि समाज मे नवजागरणक अंतर्वस्तुक संस्थापन जते दूर तक भेनाई संभव भेलै ओहि समज मे प्रगतिशीलताक लेल ओहि अनुपात मे स्थान बनलै। किरणजी वस्तुत: विद्यापतिक साहित्य मे उठल नवजागरणक प्रश्न के अपना समय मे फेर सँ संबोधित छलाह। ई बात जरूर जे विद्यापतिक समय मे एहि प्रश्नक जे जटिलता छलै ताहि सँ बहुत बेसी जटिलता किरणजीक समय मे आबि गेल छलै। जाहि सामाजक मूल प्रश्नक सुनवाईकेँ बहुत दिन तक स्थगन मे रह पड़ै छै ओहि समाजक प्रश्न-ग्रंथि त ओहिना चोटाएल भ जाइ छै। किरणजीकेँ मैथिल समाजक चोटायल प्रश्न-ग्रंथिक रूप मे चिन्हल जा सकै छैन्ह। कबीर साहित्य के `फोकट का माल' वा `घेलुआ' कहि हजारी प्रसाद द्विवेदी जे गलती कयलनि हम ओहि तरहक गलती करैत ई त नहिं कहि सकै छी जे किरणजीक साहित्य हुनकर क्षमता वा अवदानक लावादुआ अछि, तहन, ई जरूर कह चाहैत छी जे किरणजीक साहित्यक महत्त्व हुनकर सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्निर्माण क उद्यमक भाव-साक्ष्य हेबा मे छै। सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्निर्माणक उद्यम हुनकर मुख्य अवदान अछि। एहि उद्यमक भाव-साक्ष्य साहित्यक दृष्टि निर्माणक एक महत्त्वपूर्ण मैथिल आधार भ सकै छै।

साहित्य मे प्रगतिशीलताक विनियोग

साहित्य मे शिव
मिथ जातीय स्वप्न आ चेतनाक संपुट होयबाक दृष्टि सँ महत्त्वपूर्ण होइ छै। सांस्कृतिक यथार्थ के अभिव्यक्त करबा लेल मिथ बहुत उपयोगी होइ छै। एहि उपयोग मे जोखिमो कम नहिं होइ छै। महादेव मैथिल चेतनाक अभिव्यक्तिक महत्त्वपूर्ण आलंबन छथि। भक्ति आ पूजाक अंतर के ध्यान मे रखबाक आग्रह करैत कह चाहब जे भक्तिकाल मे पाथर पूजन के बेर-बेर प्रश्न-बिद्ध कयल गेल छै। जाबे तक पाथर पूजनक पद्धति जारी रहतै ताबे तक ओ नाना प्रकार सँ प्रश्न-बिद्ध होइत रहत। किरणजी सेहो पूछनाइ नहिं बिसरैत छथि जे `बनैत छै, भोज्य पदार्थ / तै लोढ़ी सिलौटकेँ ओंघड़ाय / मंदिर मे पड़ल निरर्थक / पाषाण पिंडकेँ क्यो की करैत प्रणाम'1। एक स्तर पर ई प्रश्न अछि त दोसर स्तर पर ओ महादेवक मिथकीय रूप केँ मानवीयकरण एवं जन-एकताक साक्षात रूप मे सेहो स्थापित करै छथि, `हे नकुल! कुल मूलक अहंकारकेँ तोड़निहार / छी अहाँ जन-एकता सकार'2

कलियुगक संताप सँ त्रस्त एवं सतयुगक गुणगान मे लागल मैथिल समाज मे किरणजी कलियुगक समर्थन करै छथि। ककरा कहल जाय छै कलियुग, की छै कलियुगक लक्षण! डॉ. रामशरण शर्मा कहै छथि जे `ईसाक बादक तेसर शताब्दीक अंतिम चतुर्थांश सँ चारिम शताब्दीक प्रथम चतुर्थांशक पौराणिक पाठ्यांश सब सँ पता चलै छै जे आंतरिक संकटक कारण वर्णव्यवस्था मे टूट होम लागल छलै। एहि अवस्थाकेँ कलियुगक संज्ञा देल गेलै। कलि सँ लोकक उद्धार केनाइ राजाक पुनीत कर्त्तव्य बनि गेलै। ईसाक बादक 4 सँ 6 शताब्दीक अभिलेख सबमे स्पष्ट रूप सँ आर बादक पुरा लेख सबमे पारंपरिक रूप सँ राजाके वर्णधर्मक पोषक मानल गेल छै। पल्लव राजा सिंहवर्मनकेँ `कलियुग दोषावसन्न – धर्मोद्धारेण सन्नद्ध' (कलियुगक दोख सँ अवसन्न धर्मक उद्धारक वास्ते सन्नद्ध) विशेषणक प्रयोग कएल गेल छै।'3 `वर्णधर्मक पोषक' यदि राजा छलाह त ई निश्चते जे `वर्णधर्मक पोषण' राजनीतिक काज छल। किरणजी एहि राजनीतिक कार्यकेँ बुझैत कलियुगक समर्थन करै छथि। `कलि' क अर्थ `वर्णधर्म' मुक्त जन लेबाक चाही आ ताञ `कलियुग'क अर्थ `जनयुग' लेबक चाही। एहेन जनयुग जाहि मे, `सभकेँ भेटत विकासक अवसर / हेतै असली गुणक समादर / क्यो नहि बनतै भूदेव न डोम / केवल मानव / अप्पन भाग्य विधाता मानव / जै युगमे से मानव युग / असली सतयुग आबि रहल अछि / ई मानव कवि अपन धर्म बुझि / ओकरे स्वागत गाबि रहल अछि।'4 एहि तरहेँ किरणजी असली सतयुग के जनयुगक रूपमे चिन्है छथि। ध्यान सँ देखला सँ नवजागरण क पीड़ा एहि मानव धर्मक जन्मक प्रसव पीड़ा सँ उपमित बुझायत। अपना समय मे चंडीदास, रवींन्द्रनाथ समेत नवजागरणक बुद्धि पर्व एहि मानव धर्मक मर्म के बुझने रहए। किरणजी सेहो अपना समय मे एहि मानव धर्मक जन्मक सोहर गबैत छथि। जाञ `वर्णधर्मक पोषण' राजनीतिक काज छल, ताञ मानव धर्मक जन्म सेहो राजनीतिके कार्य भ सकैत छल।

परंपराक समझ आ प्रगतिशील तत्त्वक नवोन्मेषण क उद्यम प्रमुख सांस्कृतिक दायित्व होइत छैक। संस्कृति मे पुनर्नवीकरणक आत्म-प्रक्रिया सतत जारी रहैत छैक। अपना समयमे विद्यापति नवताक आकांक्षा व्यक्त करैत पुनर्नवा संस्कृति के नित-नित नूतन होयबाक प्रक्रिया के चिन्हने रहैथ। किरणजीक साहित्य मे एहि नवताक प्रसार समाजमे होयबाक आकांक्षा अंतस्सलिला के रूपमे सर्वत्र भेट सकैत अछि। परंपराक जटायल सूत्र के सोझरबैत ओ प्रगतिकारी सामाजिक संरचना के महत्त्व के बूझि सकैत छलाह।

खंडित समाज मे
स्वतंत्रता-समानता-सहोदरता-प्रगतिशीलता
किरणजीक जन्म 1906 मे भेल छलैन। ई बात रेखांकित भेल अछि जे 1930 अर्थात 24 बरखक वयस मे बनारस प्रवासक दौरान हुनकर व्यक्तित्व मे एकटा पैघ परिवर्तन भेलैन। इएह परिवर्तन किरणजीक व्यक्तित्वक स्थाई आ मूल्यवान रूप के गठित केलकैन। 1930 तक भारतीय राजनीतिक स्वाधीनता आंदोलन जनआंदोलन में बदलि चुकल छल। प्रगतिशील आंदोलनक सुगठित वा संगठित रूप प्रकट नहिं भेल छल। मुदा, परंपरा आ आधुनिकता मे संवाद आ कखनो-कखनो संघात सेहो उपस्थित भेनाइ प्रारंभ भ चुकल छल। हिंदी मे जयशंकर प्रसादक `कामायनी' आ प्रेमचंदक `गोदान'क लेखन नहिं भेल छल। प्रगतिशील लेखक संघ वा PWA क गठन नहिं भेल छल। स्वाधीनता आंदोलनक ऊपरी चरित्र गाँधीवादी विचार दर्शन सँ संघटित छल। गाँधी दर्शनक औजार-पाती मध्यकालक मूल्यबोध सँ बनल छलैक। मध्यकालक मूल्यबोध सेहो अपना समयक परंपरा सँ टकराक विकसित भेल छल आ गाँधी जीक समय मे अपने परंपरा बनि गेल छल। मुदा ई ध्यान मे रखनाइ आवश्यक जे स्वाधीनता आंदोलनक ऊपरी चरित्रक अंत:करण मे विकसित भेल मूल्यबोध अपन बनावट मे बहुत अधिक संश्लिष्ट छलैक। एहि संश्लेषक एक रूपकेँ नेहरूक उपस्थितिक आलोक मे पढ़ल जा सकैत अछि। रूपक मे अपन बात कहबा मे किछु सुविधा होइत छै, त किछु जोखिम सेहो रहै छै। जोखिम उठाक सुविधा लैत कह चाहै छी जे गाँधी जी भारतीय स्वाधानीता आंदोलनक परंपरा पक्ष, त नेहरू जी ओकर प्रगति पक्ष छलाह। 1930 तक पाकिस्तानक माँग उठि चुकल छल, दलित एवं पिछड़ल समाज आजाद होइत भारत मे अपन स्थितिक विषय मे चिंतित छल। गाँधीजीक हरिजन प्रेम अखन पूर्ण रूप सँ सामने नहिं आयल छल। आजाद भारत मे देसी राज-रजवाड़क होबवाला स्थिति बहुत साफ नहिं भेल छलै। औपनिवेशिकताक अंत आ जनतंत्रक आविर्भावक क्षीण संभावना इतिहासक सतह पर उभरि रहल छलै। किरणजी क लेल आजादीक अर्थ एक स्तरीय नहिं बहुस्तरीय रहैन। ओ ब्रिटिश शासन सँ आजादीक संगे मिथलाक राजतंत्र सँ मुक्तिकक मर्म के सेहो बुझैत छलाह, `विश्व के थर्रा रहल अछि, एक जर्मनकेर सिपाही / हस्तगत अछि एक व्यक्तिक, आइ रोमक बादशाही / कर्म्मबलसँ एक कुल्ली, ब्रिटिसकेर साम्राज्य साजल / तही ब्रिटिसक दास नृपतिक हम रहै छी पाछु लागल / धिक्धिगति ओहि बुद्धिकेँ जे लोककेँ कायर बनाबै / त्यागि उद्यम, पेट हेतुक, भीख खुस-आमद सिखाबै / उठू मैथिल युवक, युगमे कर्मयोगक शंख बाजल / विश्वविजयी संगठन बल पाबि जनता सैन्य साजल / रहि सकल नहिं जारसाही मूल सह सुलतान गेला / जनमतक प्रतिकूल चलि इंगलैंडपति पेरिस पड़ैला / नव युगोदय भेल अछि, नरनाथ छथि नर-नाथ लागल / एहू जनतातंत्र युगमे ``किरण'' की रहबे अभागल'5

विद्यापतिक भूमिक भौतिक, राजनीतिक विपन्नता त अपना जगह सांस्कृतिक धरोहर आ बौद्धिक प्रखरताक निस्तेज भ गेनाइ किरणजीकेँ मर्माहत करैत छैन। जे संतति अपन वर्तमान के नहिं बचा सकैत अछि ओ अपन प्रांजल अतीतो सँ पे्ररणा नहिं लय सकैत अछि, किरणजी एहि सत्य के नीक जकाँ बुझैत छलाह। मुदा एतबा बुझनाई पर्याप्त नहिं, किरणजी एहि बात के सेहो बुझैत छलाह। से जँ नहिं बुझितैथ तँ ओहो इतिहासेक गली मे बौआइत रहितैथ। ओहि युग मे अतीतक पुनर्गठन एकटा सामान्य प्रवृति छल। बहुत रास लोक एहि अतीतक खोज मे अति प्राचीनकाल तकक यात्रा पर निकलला जाहि मे सँ बहुतोक वर्तमान मे वापसी संभव नहिं भेलनि। किरणजीक अपन चेतनाक संग विद्यापति तक पहुँचि अपन वर्तमान आ भविष्य तक निरंतर यात्रा करैत छथि। अतीत, वर्तमान आ भविष्य क ई त्वरित आवा-जाहीक क्षमता किरणजीक प्रगतिशीलताक पुष्ट प्रमाण अछि। ओ विद्यापति तक पहुँचै छैथ मुदा ओत बस लेल नहिं। बरन, विद्यापतिकेँ अपना देशकाल मे अयबाक नोत देबाक बास्ते ओ विद्यापति तक पहुँचै छैथ। विद्यापति के अपना एहि ठाम बजेबा मे हुनका मर्मांतक संकोच होइत छैन। एहि संकोचक मर्मकेँ उपलब्ध केनाई मैथिल समाजक लेल आइयो कठिनाह अछि, `अछि सूखल नयन नदी हियमे मरुभूमिक घोर बिहाड़ि बहय। / मधु-कानन के सुकुमार सखा कविकोकिल, हाय, बजाउ कतय? / ..../ मिथला-मृदु-भाषा-काननमे, अपने जे रोपल काव्यलता / छल, टूटि पड़ल बंगीय भ्रमर, जनि देखि मनोहर मंजुलता / अछि सूखि रहलि से भूमि खसलि, आसार बिना आधार बिना। / नव कोरक हाय, फलैत कोना? जननी तनमे रसधार बिना?'6

सामाजिक परिवर्त्तनक स्वाभाविक प्रक्रियाक अंतर्गत नव परिस्थति मे संवेदनात्मक आकांक्षाक संधान आ नव स्वप्नक सामाजिक संस्थापन किरणजीक साहित्यकेँ महत्त्वपूर्ण बनबैत छैन। किरणजीक साहित्य मे तत्कालीन भारत मे चलि रहल राजनीतिक संघर्षक सामाजिक प्रतिफलनक स्वप्न केँ सामाजिक संवेदना सँ जोड़बाक कौशल छैन। महत्त्वपूर्ण ई जे संगहि मैथिल अस्मिताक स्वायत्तताक प्रति संवेदनप्रवण सजगता सेहो छैन (`कतेक दिनक बाद / उगल छी हे मिहिर मिथिलाकेर / छलहुँ कतय नुकैल?/ ... अथवा धयले छलहुँ की राजनैतिक कोनो पार्टी / जाहिसँ पदलोभ रोगग्रस्त / छलहुँ की भय गेल ? आ ताञ छल भेल बाँतर / मिथलाक सङ सम्बन्ध ? / हम व्याकुलमना औनाइत / नोरायल नयने छलहुँ बाट तकैत चारुकात। / अछि अनेको सूर्य्य जगमे / बड़का टटा, बड़ तेज / मुदा हमर गोसाउनिक सीर लग घेंसिऐल / हृदयक ग्रहमे सन्हिऐल / जे अन्हार अछि तकरा / कय नहि सकैत दूर आन `प्रकाश' / व्यर्थ भय रहलैन, जीवन-यत्न / `योगी' महात्माकेर। / अहाँ छी अप्पन सहोदर। / एक जीवन स्रोत / एक लक्ष्य पुनीत / केहनो रहत तन / पुष्ट वा दुबरैल / मैल वा माजल सजावल / हमर शोणित-स्नेह / अहाँकेर पाथेय बनैक निमित्त / अछि सतत तैयार।'7 एहि भाव-सघन आ विचारपुष्ट काव्यांश के बेर-बेर ध्यान सँ पढ़नाइ आवश्यक अछि। राजनीतिक लोकक प्रति किरणजीक ई सोचनाई जे `अथवा धयले छलहुँ की राजनैतिक कोनो पार्टी / जाहिसँ पदलोभ रोगग्रस्त / छलहुँ की भय गेल ? आ तञ छल भेल बाँतर / मिथलाक सङ सम्बन्ध ?' पुनर्विचारक अपेक्षा रखैत अछि। ई अपेक्षा आर गंभीर बुझना जाएत यदि एकरे संगे इहो ध्यान मे राखि सकी जे, `अछि अनेको सूर्य्य जगमे / बड़का टटा, बड़ तेज / मुदा हमर गोसाउनिक सीर लग घेंसिऐल / हृदयक ग्रहमे सन्हिऐल / जे अन्हार अछि तकरा / कय नहि सकैत दूर आन `प्रकाश' '। एहि `आन प्रकाश' के चिन्ह पड़त। `आन प्रकाश'क अर्थकेँ `व्यर्थ भय रहलैन, जीवन-यत्न / `योगी' महात्माकेर।' के बुझने बिना खोलल, अर्थात डिकोड नहिं कएल जा सकैत अछि। `मिहिर मिथिलाकेर' के छलाह वा छैथ सेहो ठीक केनाई जरूरी। वर्ग विभाजित समाज मे नहिं त प्रगतिशीलता आ स्वतंत्रता अखंडित रहि सकैत अछि आ नञ समता आ सहोदरताक भावे अखंडित रहि सकैत अछि। किरणजी मैथिल समाजक पुनर्गठनक लेल स्वप्नशील छलाह। मैथिल समाज जाति-पाँति, जाति-पाँजि, सोति-भलमानुष-जबार, ऊँच-नीच, धनी-निर्धन, धर्म-संप्रदाय सँ घनघोर आत्म-विखंडनक अवस्था मे छल। आत्म-विखंडनक ई स्थिति सामाजिक पनुर्गठन मे पैघ बाधक छलै। आ ताञ किरणजी जाति-पाँतिक, जाति-पाँजिक, सोति-भलमानुष-जबारक, ऊँच-नीचक, धनी-निर्धनक, धर्म-संप्रदायक विरुद्ध छलाह। किरणजीक समाजिक समयक सीमाकेँ ध्यान मे नहिं रखनाई अन्याय होएत। हम आइ सर्वत्र हुनका सँ अनिवार्यत: सहमते होइ, से आवश्यक नहिं। कतौ-कतौ कोनो तात्कालिक दबाव हुनका इतिहासक गलत व्याख्या तक सेहो ल गेल छैन, हालाँकि एहेन अपवादे स्वरूप भेल छै, मुदा भेल छै, जेना, 1956 मे रचित आ कविता संग्रह `कतेक दिन बाद' मे संकलित कविता `ताजमहल'। तात्कालिकताक कोनो दुर्वह दबाव मे इतिहासक गलत समझ पर लिखल कविता क अपवादात्मक उदाहरण बुझना जाइत अछि।

किरणजीक व्यक्तित्वक नाभिकीय बिंदु हुनकर आंदोलन धर्मिता में छैन। किरणजी सन आंदोलनधर्मी रचनाकारक प्रगतिशीलता साहित्यक गुणक रूप मे बाद मे पठनीय होइत छैक, पहिने पठनीय होइत छैक आंदोलन कर्म मे। आंदोलन आ रचनाक संबंध दू कोण सँ बूझल जा सकैत अछि। अधिसंख्य रचनाकरक प्रगतिशीलताकेँ रचना मे पढ़ल जा सकै छै। बहुत कम रचनाकरक प्रगतिशीलताकेँ आंदोलन कर्मक धधकैत आलोक मे पढ़ल जा सकै छै। किरणजीक प्रगतिशीलताकेँ धधकैत आलोके मे पढ़ल जा सकै छै। किरणजीक आंदोलन कर्म के बुझवा लेल हुनकर काव्य सँ पर्याप्त प्रकाश भेटनाइ संभव नहि। वस्तुत:, किरणजीक आंदोलनधर्मिता हुनक साहित्य के बुझवाक हुनर द सकैत अछि। एहि लेल किरणजीक प्रामाणिक जीवनी के तैयार केनाई जरूरी। एहि सँ हुनकर अवदानक त पता चलबे करत संगहिं बीसम सदी मे मिथिलांचल मे चलल सामाजिक आंदोलन आ मैथिल नवजागरण आंदोलनक किछु सूत्र केँ सेहो पकड़ल जा सकैत अछि। `अछि सूखल नयन नदी हियमे मरुभूमिक घोर बिहाड़ि बहय' मैथिल जीवनक संगहिं किरणजीक व्यक्तिगतो जीवनक व्यथाक कथा कहैत अछि। एहेन व्यथाग्रस्त जीवन मे प्रगतिशीलताक रक्षा, प्राणरक्षे टा सँ समतुल्य भ संभव भ सकैत अछि।

बीसम सदी मे प्रगतिशीलताक रक्षा मे सक्रिय संगठन आ विचारधाराक द्वंद्व के बुझबा मे सेहो किरणजीक संघर्ष सँ मददि भेट सकैत अछि आ एक्कैसम सदी मे एहि दिशा मे होमवाला संभावित प्रयासकेँ सेहो मददि भेट सकैत अछि। ध्यान मे अछि जे प्रगतिशील विचारधारा मे स्वभावत: वैज्ञानिकताक आग्रह रहै छै। धर्म आ विज्ञान मे एकटा अंतर ई कहल जाइत छैक जे धर्म मे पूर्व प्रमाण होइत छैक जखन कि विज्ञान मे उत्तर प्रमाण होइत छैक। प्रगतिशीलतोक संदर्भ मे पूर्व नहिं उत्तर प्रमाण होइ छै। किरणजीक प्रगतिशीलता के बूझब आ बचायब आ ताहू सँ बेसी आगू बढ़ायब आइ एक महत्त्वपूर्ण दायित्व अछि। किरणजीक प्रगतिशीलता केँ अजुका मैथिल समाजक आ टटका मैथिली साहित्यक प्रगतिशील अवस्थाक आलोक मे पढ़नाई अधिक जरूरी अछि। किछु शुभ छै, त किछु अशुभ छै, मुदा ई सत्य जे उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरणक समय मे जखन राजनीतिक राष्ट्र प्रत्याहार-सन्निपात (Withdrawal Syndrome)सँ ग्रस्त भ रहल अछि, दुनियाक सामाजिकता सब मे अपन पुनर्गठनक ललक फेर जोर पकड़ि रहल छै। मैथिल समाज मे अपन पुनर्गठनक कतेक ज्ञान, इच्छा आ क्रिया सक्रिय भ सकतैक से अवश्ये चिंता आ चिंतनक विषय। स्वतंत्रता-समानता-सहोदरता-प्रगतिशीलता अखंडित आ अविभाज्य मूल्य होइ छै। खंडित समाज मे त एकर सपनो अखंडित नहिं रहि पबैत छै। ताञ, आइ नहिं, काल्हि मैथिल समाजकेँ खत्तो उपछ पड़तै आ माछो मार पड़तै। विश्वास अछि, जे जहिया कहियो मैथिल समाज नवोन्मेषक आंतरिक प्रक्रिया सँ गुजरबाक बास्ते राजनीतिक रूप सँ अपन अस्मिता केँ पुनर्गठित करबा लेल डाँड़ कसत ओकरा किरणजीक सांस्कृतिक प्रगतिशीलता एक महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शक के रूप मे प्रतीक्षा करैत अवश्ये भेटतै। किरणजीक सांस्कृतिक प्रगतिशीलता महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शक के रूप मे, सभा मे जँ नहिंयो भेटै त मार्ग मे अवश्ये भेटतै।

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संदर्भः
1.डॉ काञ्चीनाथ झा 'किरण': कतेक दिनक बादः माटिक महादेव, 1956
2.डॉ काञ्चीनाथ झा 'किरण': कतेक दिनक बादः जय महादेव, 1956
3.रामशरण शर्माः प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संसथाएँ : परिशिष्ट-2, गोपति से भूपतिः राजकमल प्रकाशन, 5वीं आवृत्ति 2001
3.डॉ काञ्चीनाथ झा 'किरण': कतेक दिनक बादः सतयुग, 1955
4.डॉ काञ्चीनाथ झा 'किरण': कतेक दिनक बादः , 1956
5.डॉ काञ्चीनाथ झा 'किरण': कतेक दिनक बादः युवक सँ, 1939
6.डॉ काञ्चीनाथ झा 'किरण': कतेक दिनक बादः विद्यापति, 1940
7.डॉ काञ्चीनाथ झा 'किरण': कतेक दिनक बादः कतेक दिनक बाद (रचनाकाल अनुल्लिखित)

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