शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल

मोहन भारद्वाज आ डॉ. कैलाश नाथ झा संपादित किरण समग्र, खण्डः एक (निबंध) पढ़ि रहल छी। संपादक द्वय धन्यवादक अधिकारी छैथ। एहि संग्रहक महत्त्वपूर्ण अंश पर अपेक्षाकृत विस्तार स बाद में अखैन त पढ़ि रहल छी। 

एहि संग्रहक 'फकड़ा' स एक प्रसंगः
'विद्यापति कहैत छथिः जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल। विद्यापति महापण्डित छलाह। परंतु हुनक प्रेमक आधार छलैन रूप आ तृप्तो आँखिए होइतनि। हृदयकेँ तृप्ति क संग सम्बन्ध छलै से शब्दसँ स्पष्ट नहिं होइछ। दोमस 'जनम अवधि' क प्रयोग सुंदर नहि अछि। कारण प्रेमक बोध जन्मतहि नहिं होइत छै। ई गुण समर्थाइक थिकै। संग-संग 'निहारल' भेल अतीत काल मे ल जाइत अछि। जाहि सँ कहबक कालमे ओकर मनक भाव केहेन छै से बोध नहि भ सकैछ। आब फक्कड़क कथन सुनूः
आँखि मुनि हम सदिखन देखी
कखनहुँ जी न अघाय।
सखि हे प्रीतक रीति बलाय।।
फक्कड़ नायिका आँखि मुनि कय देखि रहल अछि सदिखन आ कखनहुँ ओकर जी नहिं अघायत छै। कहबक कालहु मे देखि रहल अछि।
रूप नहिं आंतरिक गुण छै ओकर प्रेमक आधार। तञ ने आँखि मुनि कय देखैत अछि।
कखनहुँ जी नहि अघाइ छै। अघाय शब्द केहन चमत्कारक अछि। अघाय मे जे भाव छै से तिरपित कतय पाओत?
तञ कहैत अछि 'प्रीतिक रीति बलाय'। आँखि मुनि कय देखय पड़ै छै आ जी अघाइत ने छै। कार्यक पर्यवसान नहि होयबाक कारणे बलाय-झंझट थिक। अघान-तृप्तिए सुख थिक कि ने!
आइ जँ ई पद कोनो पण्डितक रहैत तँ विद्यापति कतेक दूर धकेलि देल जैतथि से अनुमान सँ बाहर अछि। परंतु ई त फकड़ा थिक। एकर रचियता राजमुकुटमे जड़ल नहि जा सकल खानिक अपरिचित मणि जकाँ पाथरे रहि गेल।'

आब पहिने तत्काल संदर्भ लेल देखल जाओ, विद्यापतिक पूरा पदः

'सखि, कि पुछसि अनुभव मोय।
से हों पिरीति अनुराग बखानइत, तिल-तिले नूतन होय।
जनम-अवधि हम रूप निहारल, नयन न तिरपित भेल।
सेहो मधु बोल स्रवनहि सूनल, स्रुति-पथ परस न भेल।
कत मधु जामिनि रभसे गमाओल, न बुझल कइसन गेल।
लाख-लाख जुग हिये-हिये राखल, तइयो हिय जुड़न न गेल।
कत बिदग्ध जन रस अनुमोदइ, अनुभव काहु न पेख।
विद्यापति कह प्राण जुड़ाएत लाखे मिल न एक'

किरणजीक मोन में विद्यापति क महत्त्व क प्रति बहुत सम्मान छैन। आलोचनात्मक अनुबंध कोनो संबंधक बुनियादी आधार किरणजी क स्वभाव छैन। एहि स्वभाव में किरणजीक शक्ति छैन, सीमा सेहो।

जहिना, किरणजीक मोन में विद्यापति क महत्त्वक प्रति बहुत सम्मान छैन तहिना हमरो मनमे किरणजीक प्रति सम्मान अछि। परंतु ई सम्मान हमरा ई कहबा स नञ रोकि सकैत अछि जे किरणजीक ई कहनाई ठीक नञ जे, 'आइ जँ ई पद कोनो पण्डितक रहैत तँ विद्यापति कतेक दूर धकेलि देल जैतथि से अनुमान सँ बाहर अछि। परंतु ई त फकड़ा थिक। एकर रचियता राजमुकुटमे जड़ल नहि जा सकल खानिक अपरिचित मणि जकाँ पाथरे रहि गेल।' कारण, फकड़ा मे 'आँखि मुनि हम सदिखन देखी' जाहि स्वानुभूति क प्रसंग छै, विद्यपतिक पद मे 'सेहो मधु बोल स्रवनहि सूनल, स्रुति-पथ परस न भेल' ओहि तरहक स्वानुभूति नञ छै। फकड़ा मे अनुरागक अनुभव छै, त विद्यपतिक पद मे म्लान मन स उपजल उपरागक बखान छै। विद्यपतिक पद मे शब्दाडंबर में 'तिल-तिले नूतन होय' अर्थात अस्थिर पुरुष प्रेमक अभिव्यक्ति के प्रति एक तरहक खौंझाएल विरक्ति छै ▬▬ 'कत बिदग्ध जन रस अनुमोदइ, अनुभव काहु न पेख'। उपालंभ जे बिदग्ध जन रस देखैत छैथ, अनुभव के नञ परखैत छैथ! 'देख' 'पेख' मे अर्थ क एक टा अंतर छै। 'देख' एहि प्रसंगे इंद्रिय प्रधान, 'पेख' बुद्धि प्रधान परखक ध्वनि दैत। विद्यपतिक बादक कवि तुलसीदास जखैन 'मज्जन पल पेखिअ तत्काला' कहैत छैथ त एकरो, बुद्धि स परखबाक संदर्भे स बूझल जा सकैत अछि। 'जनम अवधि' क प्रयोगकेँ एहि तरहे बुझनाइ उचित जे ई 'अस्थिर पुरुष प्रेमक' जन्म सँ संबंधित छै आ ओकरे ध्वनित (qualify) करैत छै नायिकाक जन्म सँ नञ त संबंधित छै आ ने ओकरा ध्वनित (qualify) करैत छै

एहि प्रसंगे, विद्यपति क पद आ फकड़ा दू भिन्न आ लगभग विपरीत मति क काव्योक्ति अछि आ ताञ एहि तरहेँ अतुलनीय। ई ठीक जे, 'अघाय शब्द केहन चमत्कारक अछि। अघाय मे जे भाव छै से तिरपित कतय पाओत?' तिरपित भेलाक बादे अघेबाक स्थिति छैक। विद्यापतिक पद 'अस्थिर पुरुष प्रेम' मे त तिरपितो होयबाक सुख नञ छै, अघेनाइक कथे कोन! बहुत विनम्रता पूर्वक, किरणजीक स्थापना स असहमत जे 'आइ जँ ई पद कोनो पण्डितक रहैत तँ विद्यापति कतेक दूर धकेलि देल जैतथि से अनुमान सँ बाहर अछि। परंतु ई त फकड़ा थिक। एकर रचियता राजमुकुटमे जड़ल नहि जा सकल खानिक अपरिचित मणि जकाँ पाथरे रहि गेल।' ओहुना सुनल अछि जे 'खानि' मे नहि, 'मणि' अनतै पाएल जाइत छै!

फेर कहै छी, एहि संग्रहक महत्त्वपूर्ण अंश पर अपेक्षाकृत विस्तार स बाद में अखैन त पढ़ि रहल छी, सीख रहल छी। अखनि पढ़ दिअ, अखन सीख दिअ।

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किरण समग्र
खण्डः एक
(निबन्ध)

सम्पादकः
मोहन भारद्वाज
डॉ. कैलाश नाथ झा
किरण-साहित्य शोध संस्थान
धर्मपुर, लोहना रोड, दरभंगा
पहिल संस्करणः 2007 इ.

स्वत्वाधिकारः कैलाश नाथ झा
मूल्यः दू सय पचास टका

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1 टिप्पणी:

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