मंगलवार, 12 अगस्त 2014

सांस्कृतिक उन्मुक्तताक आकांक्षाक रूप मे कविता

संदर्भ नवम दशकक मैथिली कविता 

'तीन कारण स मानव विकासक सांस्कृतिक आयाम पर गंभीरतापूर्वक ध्यान देब जरूरी। पहिल, सांस्कृतिक उन्मुक्तता मानव स्वतंत्रताक महत्त्वपूर्ण पक्ष होइत छै जाहि मे उपलब्ध वा उपलब्ध भ' सकवाला विकल्प के अपनाक लोक कें इच्छित जीवन जीबाक क्षमता तथा अवसर शामिल छै। सांस्कृतिक उन्मुक्तताक उपलब्धता मानव विकासक अनिवार्य पक्ष छै आ एहि लेल सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक अवसरक पार गेनाइ जरूरी, किए कि ई सभ अपने-आप मे सांस्कृतिक उन्मुक्तताक गारंटी नहि भ सकैत अछि। दोसर, एहि बीच में हालाँकि, संस्कृति आ सभ्यता पर काफी चर्चा भेल अछि तथमपि सांस्कृतिक उन्मुक्तता चर्चाक मुख्य बिंदु नहि बनि सकल आ सांस्कृतिक संरक्षण पर बेशी जोर रहलैक। मानव विकासक दृष्टिकोण, सांस्कृतिक परिक्षेत्र मे मानव विकासक महत्त्व के बुझैत अछि। एकर बदला मे, चलैत आबि रहल युक्तिहीन परंपरा पर जोर देनाइ, सभ्यताक दुर्निवार संघातक चेतावनी पर चर्चा मे जोर रहल अछि जखन कि मानव विकासक परिप्रेक्ष्य सांस्कृतिक परिक्षेत्र मे स्वतंत्रताक महत्त्व के रेखांकित करैत अछि जाहि स लोक सांस्कृतिक बचाव आ प्रसारक आनंद ल' सकए। महत्त्वपूर्ण मुद्दा पारंपरिक संस्कृतिक वैशिष्ट्यक संरक्षण नहि सासंकृतिक विकल्प आ स्वतंत्रताक उपलब्धता अछि। तेसर, सांस्कृतिक उन्मुक्तताक महत्त्व मात्र सांस्कृतिक परिक्षेत्र मे नहि अछि बल्कि एकर संबंध सामाजिक, राजनीतिक आ आर्थिक परिक्षेत्रक सफलता विफलता स सेहो प्रगाढ़ छै। मानव जीवनक विभिन्न आयाम दृढ़तापूर्वक अंतर्संबंधित अछि। एते तक कि, गरीबी, जे एक तरहक आर्थिक अवधारणा थिक, ओकरो सांस्कृतिक संदर्भ के बिना नहि बूझल जा सकैत अछि। वस्तुतः एडमस्मिथ, जिनकर काज मानव विकास के प्रासंगिक बनौलक अछि हुनकर ई मानब छैन जे सांस्कृतिक अपवंचन आ आर्थिक गरीबी मे बहुत नजदीकी संबंध छैक।'1

सांस्कृतिक उन्मुक्तता आ सांस्कृतिक अपवंचन, एकरा सांस्कृतिक बहिष्करण (Cultural Exclusion) सेहो बूझल जा सकैत अछि, स गप्प शुरू कएल जा सकैत अछि। सांस्कृतिक उनमुक्तता सांस्कृतिक संरक्षण सँ सर्वथा भिन्न छैक। रोजी-रोटी आ जीवनक अन्य प्रसंगक मादे मनुष्य भिन्न सांस्कृतिक वातावरण में एनाइ-गेनाइक लेल बाध्य अछि। जाहि समाजमें जाइ ओकर सांस्कृतिक परंपराकें सम्मान केनाइ अपनेनाइ स्वाभाविक। अवधीक प्रसिद्ध कवि तुलसीदास कहि गेल छैथ -- जहाँ बसइ सो सुंदर देसू ! सुंदर देसू ठीक मुदा ओहू ठाम इएह बांछनीय जे अपन सांस्कृतिक पहचान के मिटा देबाक बुड़िबकै स बचबाक चाही। सांस्कृतिक उन्मुक्तताक सवाल असल में सांस्कृतिक परंपरा आ प्रसंगक चयनक थिक। आ हम त' कहब जे चयन स बेशी ई अपन परंपरा आ सांस्कृतिक प्रसंगकें अन्य सांस्कृतिक प्रवाहक संग सम्मिलनीक वा सम्मिश्रणक थिक। विस्तार स अन्यत्र, अखन त' एक टा उदाहरण। आइ हमरा सांस्कृतिक जीवन मे खाली अंगरेजी, हिंदी सन पैघ भाषाक माध्यम स आबि रहल सांस्कृतिक उपादनक मात्रा नञ बढ़ि रहल अछि बरन पंजाबी, भोजपुरी आदिक आमद भ' रहल अछि। ई त' खुशीक गप्प एकर स्वागत करबाक चाही, चिंता तखन बढ़ि जाइत अछि जखन मैथिल संस्कृतिक उपादनक प्रवाहकें स्थगित देखैत छी। खाली मैथिल संस्कृतिक उपादनक प्रवाहक ई स्थिति नञ, बांग्ला, अवधी, ब्रभाषा आदि सनक पैघ संस्कृतिक स्रोतक स्थिति सेहो बहुत नीक नञ कहल जा सकैत अछि। आर-त-आर कहू त' असगर कोळावळी कतेक बाजार पीटलक? आखिर की बात छलैक जे सदैव ब्रजनारी के संबोधित गीतक प्रवाह ब्रज क्षेत्र मे नहि भ' पूबे दिस भेल? कीछ त' कारण हेतै! हमरा ई सवाल बहुत हरान करैत अछि, मुदा अखनि ओम्हर नञ। अखनि त' सांस्कृतिक उन्मुक्तताक सवाल असल में सांस्कृतिक उपद्रव सं बचाव आ सांस्कृतिक परंपरा आ प्रसंगक चयनक सवाल थिक। आ हम त' कहब जे चयन स बेशी ई अपन परंपरा आ सांस्कृतिक प्रसंगकें अन्य सांस्कृतिक प्रवाहक संग सम्मिलनीक वा सम्मिश्रणक थिक। एतबे जे, हमरा सबक मोनमे सांस्कृतिक उन्मुक्तताक सवालक मादे मैथिल परंपरा आ सांस्कृतिक प्रसंगकें अन्य सांस्कृतिक प्रवाहक संग सम्मिलनीक वा सम्मिश्रणक अविरुद्ध स्थिति होएबाक चाही।

मैथिल संस्कृति बहुत समृद्ध अछि। मैथिली साहित्यक समृद्धि पर गाहे-बगाहे चर्चा होइत रहैत अछि। एडमस्मिथ कहने छथि जे गरीबी आ सांस्कृतिक अपवंचन मे करीबी संबंध छैक त ओकरा अहू रूपे बूझल जा सकैत अछि जे आइ संस्कृतियो आर्थिक समृद्धिक एकटा औजार अछि। कहबाक जरूरत नञ जे विश्व आर्थिकीक एकटा पैघ अंश संस्कृतिक उपादान स बनैत अछि। ई त' बुझना जाइत अछि जे संस्कृति आ आर्थिकी में नजदीकी संबंध छैक त' की एहेन भ' सकैत अछि जे सांस्कृतिक रूप सँ समृद्ध समुदाय आर्थिक रूप सँ दरिद्र हो? ज' एहेन छै त' हमरा जनैत सांस्कृतिक संभ्रम (Cultural Illusion) सांस्कृतिक प्रज्ञा (Cultural Competence) के गछारने अछि आ ताञ कतौ अबूझ गलती भ' रहल अछि। या त' सांस्कृतिक समृद्धिकें बढ़ा-चढ़ाक मूल्यांकित कएल जा रहल अछि या आर्थिक दरिद्रताकें बढ़ा-चढ़ाक सामने राखल जा रहल अछि वा दुनू गप्प भ' सकैत अछि। हम कहब जे मैथिलक संदर्भ में दुनू गप्प भ' रहल अछि। ताञ कने सावधान रहबाक जरूरत अछि। पुरना समय में मैथिल संस्कृति बहुत समृद्ध छल जेकर स्मृति हमरा खिहारि रहल अछि आ आर्थिक रूपे हम ओतेक दरिद्र नहि छी जेते हम अपनाकें बुझि रहल छी। स्मृति खिहारिक संप्रतिकें गछारि लिए' ई एकटा भिन्न स्थिति आ स्मृतिक धरोहरि स प्राण-रस ल' संप्रति प्राणवंत बनए ई सर्वथा भिन्न स्थिति। ई त' स्पष्टे जे पहिल पछुआ दैत छै त' दोसर अगुआ दैत छै। ताञ, पहिल स दोसर स्थिति दिस बढ़नाइ चुनौती ! एहि चुनौतीक मादे मैथिली साहित्यक महत्त्वकें अकानब मैथिली आलोचनाक एकटा जरूरी कार्यभार। आलोचनाक दोसर जरूरी कार्यभारक ठिकिएबाक क्रमे आगू बढ़वा स पहिने देखनाइ उचित जे मैथिली साहित्यक वर्त्तमान स्थिति केहेन अछि ! खासक मैथिली कविता आ मैथिली आलोचनाक परिदृश्य! बहुत आसान उपाय अछि, एक वाक्य मे कहि देल जाए जे अति उत्तम ! महो-महो ! अहाँ सबके नीक लागत, साहित्यकार संतुष्ट हेता, हमरो मन प्रसन्न हएत। मुदा, ई एहेन समय अछि जे हमरा सभकें आसान रास्ता के छोड़ि कने कठिन रास्ता पर चल पड़त। सबके नीक नहियो लागि सकैत अछि, साहित्यकारो सब असंतुष्ट भ' सकैत छैथ, अपनो मोन दुखी भ' जाएत। तैयो, हँ तैयो ई खतरा उठबैए पड़त। असगरे ई खतरा नहि उठाएल जा सकैत अछि। हमरा सबके ई खतरा मिलक उठाब लेल तैयार रहबाक चाही। त चलू, अपना दिश स किछ कहबाक पहिने मैथिलीक प्रसिद्ध साहित्यकार गंगेश गुंजन जी स बूझि लैत छी जे मैथिली साहित्यक वर्त्तमान स्थिति केहेन छैक। गंगेश गुंजनक शब्द मे,'मैथिलीक वर्त्तमान, सपाट, स्थूल आ स्पंदनहीन काव्यालोचन, नव काव्यानुभवक युग सापेक्ष भार नहि उठा पाबि रहल अछि। ई समय तेहन अछि जे आइ, समीक्षक भूमिका सेहो सर्जकक सहरूपी भ' गेल अछि। आचार्य नलिन विलोचन शर्मा समीक्षाकें रचनाक शेषांश कहने छथि। मैथिली के आइ ई परिवेश चाही। एखन त मैथिली कविता वन कुसुम जकां, अपन अस्तित्व रक्षा आ विकास में स्वयं संघर्षरत अछि।'2 आब चुनौती ई जे, सपाट, स्थूल आ स्पंदनहीन काव्यालोचनके गंभीर, सूक्ष्म आ स्पंदित कोना कएल जाए जाहि स मैथिली कविता के दिशा भेटैक। 

पहिने साफ क' दी जे कवि, जे कोनो भाषा के कवि बहुत संवेदनशील होइत छैथ आ कविता बहुत जटिल मानवीय अभिव्यक्ति ओकरा रचनाक बाहर स प्रत्यक्षतः निदेशित नहि कएल जा सकैत अछि आ नञ त' हम ई गलती कर जा रहल छी। हँ, ई मनोरथ जरूर जे आलोचना के मैथिली कविता क संगी-सहचरी बना सकी। मैथिली कविता में गति त' छै मुदा गतिक सापेक्षता मे दिशा नञ छै। दिशाक अभाव मैथिली कविताके एकहि वृत्त पर घुमा दैत छैक। कहबाक प्रयोजन नञ जे, वास्तविक या अभिकल्पित गंतव्यक बोध गति के दिशा दैत छैक। मैथिली कविताक वास्तविक किंबा अभिकल्पित गंतव्य की भ' सकैत अछि से ठिकियाब पड़त। एहि मे आलोचनाक किछ भूमिका भ' छै की ! अहाँ मे स बहुतौ जनैत हएब मुदा, प्रासंगिक रूप स संकेत केनाइ जरूरी जे काव्य-शास्त्र आ काव्योलोचन मे अंतर होइत छैक।

सभ्यताक विकास क्रम मे निहित सत्ता-विमर्शक कारणे संस्कृति बहुत तरहक विपर्यय देखने अछि। मातृ-सत्तात्मक समाज पितृ-सत्तात्मक समाज मे बदलि गेल। मनुष्य पर मशीन का वर्चस्व बढ़ल। लोक वेदक पाछू-पाछू चल लागल। शास्त्र आ सत्ता का जन्म संगे होइत छै। जेना-जेना साहित्य लोक-विमर्श स बाहर आ सत्ता-विमर्शक अंगीभूत होइत जाइत अछि साहित्य पर शास्त्रीयताक दबाव बढ़ैत जाइत छैक। साहित्य पर शास्त्रीयता क गहन प्रभाव आ दबावक सुदीर्घ आ समृद्ध परंपरा छै। एहि प्रभाव आ दबाव स बाहर निकलबाक क्रम मे आलोचनाक जरूरत के बुझबाक चाही। मतलब साफ जे `काव्य-शास्त्र' आ `काव्यालोचन' में मूलभूत गुणात्मक अंतर छै। साहित्यक विभिन्न पक्ष के संदर्भ में काव्य-शास्त्रक अनुल्लंघनीय सीमा होइत छै। फेर कहब जे शास्त्र में सत्ता अभिमुख होइत जेबाक तीब्र प्रवणता अंतर्निहित होइत छै। एहि प्रवणताक कारण शास्त्रक हृदय में लोक-संवेदनाक लेल समुचित सम्मानक कोनो खास जगह नहि रहैत छैक। ई बात खाली साहित्य-शास्त्रेक संदर्भ मे नहि बरन धर्म-शास्त्र, अर्थ-शास्त्र आ समाज-शास्त्रोक संग सेहो होइत छै। शास्त्र प्रतिमान गढ़ैत अछि आर आलोचना प्रतिपथ तकैत अछि। शास्त्र और लोकक बीचक द्वंद्व के गहियाक देखल जाए त ई बात सहजे बुझबा मे आबि सकैत अछि जे एहि क्रममे युगांतरकारी सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक विवर्त्तनक जन्म होइत छैक आ युग-संक्रमणक अंतर्विरोधक दबाव भाषा के प्रति साहित्यकारक बेबहार के बदलि दैत अछि। अकारण नहि संस्कृतक अगाध पंडित के देसिल बयना मीठ लाग लगैत छैन! अपन दायित्व-पालनक बास्ते आलोचनाके सहयोजी आ गतिशील होब पड़ैत छै। विज्ञान आ तकनीकक नवोन्मेषक ई समय सांस्कृतिक प्रक्रियाक नवोन्मेषक समय सेहो छैक। मैथिली साहित्यके आइ सहयोजी आ गतिशील आलोचना के जरूरत छै, विचारशील आ दिशा-संधानी आलोचनाक जरूरत छै। सावधानी ई जे, आजुक समय विचार क दुनिया मे घोंघाउज चलि रहल छैक। कोनो विचार आँखि मुनिक अपना लेबामे खतरा सब समय रहैत छै, अखैन त आर बेशी। ओना त आँखिगर लोक कहियो आँखि मुनिक कोनो प्रस्ताव के स्वीकार नहि करैत अछि। मुदा आँखि पर खतरो त' शुरूए स रहल छै। जखन श्रीकृष्ण कोनो तरहे अर्जुनके नहि प्रबोधि सकलाह त हुनकर आँखिये बदलि देलखिन। ई नहि कहखिन जे हम अहाँक आँखि छीनै छी, कहलखिन जे हम अहाँ के दिव्य आँखि दैत छी -- 'न तु मां शक्यसे द्रष्टुमननैव स्वचक्षुषा। दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमेश्वरम।'[3] ई त' ओहि समय भेल रहै ! अजुका कठिन समयमे विचारशील आ दिशा-संधानी आलोचनात्मक दृष्टि के सक्रिय रखनाइ की एतेक सहज काज छी ! ई काज सहज भ' सकैत अछि यदि सहज-सुमति के हम सब मिलिक साधि सकी। हमरा जनैत, एहि समय मे मैथिली आलोचनाक इएह भूमिका भ' सकैत अछि। 

त केहेन कठिन समय अछि, की कहैत छैथ पंकज पराशर, 'एहि चतुर समय मे/ जखन कि भविष्यक नक्शा बनाओल जा रहल हो/ भूमंडलीकरण आ उदारीकरणक नेओं पर/ लालटेमक मद्धिम रोशनी मे तल्लीनता स पढ़ैत/ मनोहर पोथी/ हमर भागिन हमरा भरि दैए घोर संत्रास/ व्यर्थता बोध सँ'4। ई संत्रास, ई व्यर्थता बोध साधारण नञ किएक त' अतीतक गछारक बीच में फँसल लालटेमक मद्धिम रोशनी मे भविष्यक जे नक्शा स्पष्ट भ' रहल अछि ओकर अंतर्निहित संकेत जे भूमंडलीकरण आ उदारीकरणक पोथी स संस्कृतिक मनोहर पोथीक पृथकता स एहि संत्रास आ एहि व्यर्थता बोधक नाभिनाल संबंध छैक। एकटा फूल खिलाइ छै तो ओकर पाछू प्रकृतिक कतेको ज्ञात-अज्ञात प्रक्रिया एकहि संगे सक्रिय रहैत छैक ! आ मनुखक जन्मक पाछू त बुझले जा सकैत अछि प्रकृतिक संगहि संस्कृतियोक कतेको ज्ञात-अज्ञात प्रक्रिया सक्रिय रहैत छैक! मुदा एक समय जेना ई प्रक्रिया विच्छिन्न हुअ लगैत छै, तैयो कि एतेक सहजहि ! कहैत छैथ वियोगी जी, 'बहुत मनसुआसँ देने छल हेती जन्म/ कतेको रास नियार-भास/ कतेको कतेक आस-मनोरथ/ घुमड़ैत रहैत छल हेतनि हुनका चतुर्दिक/  ओहि नव मासमे, जा हम हुनका गर्भ मे रही। /..../ कोना हम मानब जे माइ हमर मरि गेली/ आ छोड़ि गेली संग!// जा हम जीबैत छी/ कोन उपायें छोड़ी ओ हमर संग?'5 मिथिलावासी त' सब दिन स घर छोड़ि बहराएबाक परिस्थिति स गुजरैत रहल छथि। कतेक बेर त' घर छोड़ि बहरेलाक बादो ओ सांस्कृतिक रूपे घरे मे रहैत रहलाह आ अनेक बेर घर छोड़ि घुड़मैया मे लागि गेला मुदा घर सं बहराएबाक गप्प केदार कानन लधैत छथि त' कने गंभीर गप्प कहैत छैथ, घर सं बहरेनाइ किएक एते जरूरी, 'मुदा कतेक जरूरी अछि/ बहराएब घर सं/ अपन एकांतक जंगलसँ/ प्राण लेल/ जीवन लेल/ कतेक बेगरता अछि/ हमरा बहरएबाक'6। जरूरी अछि, बहराएब घर सं मुदा डर ई जे 'एहिना छुटैत अछि राग-रंग/ गीत-लय-ताल  प्रेम, जे नहि क' सकलहुँ एखन धरि/ सभसँ बेसी/ सभसँ बेसी मोन लागल रहत/ तकरा पर'[7] । जरूरी अछि, बहराएब घर सं मुदा राग-रंग, गीत-ताल-लय आ प्रेम के छूटि जेबाक डर! ओना त कोनो समुदायक सदस्यक मोन मे एहि जरूरियात आ एहि छूटि जेबाक डर सं उत्पन्न द्वंद्व स्वाभाविक मुदा मैथिलक गृहबोधक निजत्व एहि द्वंद्वकें एक भिन्न तरहक वैशिष्ट्य द' दैत छै! एहि खास तरहक द्वंद्व के रहितौ घर स बहरेनाइ जरूरी एहु लेल जे, 'बन्न कोठलीमे घुटन अछि/ चीत्कार अछि/ उत्तेजना अछि/ मुदा अखनो बचल थोड़े आस अछि/ आ बन्न कोठलीमे/ अखनो शेष अछि प्राण-रस  शेष अछि/ खिड़की खोलि लेबाक विश्वास।'8 सुस्मिता पाठकक खिड़की खोलि लेबाक साहस असल मे मैथिलक सांस्कृतिक साहसो थिक। ज एकरा संगहि मैथिल महिलाक विश्वासक संगे एकरा जोड़िक बुझबाक कोशिश करी त आइ दुनियाक महिला खिड़की सं आकाशकें देखैक सीमाकें तोड़ि कम-स-कम अंगनाक खुजल जमीन सं आकाश के देखैक विश्वासी छैथ। मुदा सुस्मिता खिड़की खोलि लेबाक विश्वासक शेष रहबाक गप्प कहैत छैथ छथि त ई मैथिल जीवन एकटा विश्वसनीय प्रसंग बनि जाइत अछि। किएक त' प्राण-रसकें सोखि लेबाक आ विश्वासकें तोड़ि देबाक स्थिति चाहे जेते बढ़ि गेल हो, कोठली गाहे जते निमुन्न हो मुदा भरोसकें बचा रखवाक मनुखक क्षमता अजेय होइत अछि। नारीक सामाजिक पारिवारिक विशिष्ट संदर्भ मे ज्योत्सना चन्द्रमक मोन ठीके कहैत छनि जे 'नारीके मानलनि सभ/ वशीकरणक प्रतीक/ केहेन विडंबना! केहन अछि ई त्रासदी/ इएह नारी/ रहलि सदा वशीभूत'9। नारीक वशीभूत रहबाक ई स्वर एहेन विडंबनाकें असल मे मनुख जातिक विडंबनाक रूप मे पढ़बाक चाही। आ ई कम पैघ गप्प अछि जे एहि विडंबनाक रहितौ कुमार शैलेन्द्र ओकर सपना मे देखैत जे 'ओकर आँखि मे फुलाइ छै सपना/ बंशीवट पलाश सन/ साँझक पनिसोखा सन/ कखनो गामक भोर सन'10। घर स मनुखक संबंध दुतरफा होइत छैक। मनुख घर मे रहैत अछि। ई जतबा सत्त ततबे इहो सत्त जे घर मनुखक मोन मे रहैत छैक। जखन मनुख घर सं बाहर होइत अछि तखन मनुखक मोन मे बसल घर बेशी जाग्रत भ' जाइत छै आ ओकरा जरूरी बुझाइत छै, 'पोचाड़ा करेनाइ / आ कि ढौरनाइ घर कें / वास्तव में/ ढौरनाइ भ' जायत छैक विचार कें... / घरक कोन-कोनक नव रूप/ मोन कें दैछ नव स्वरूप !'11 आ ताञ असल मे पोचाड़ा करेनाइ आ कि ढौरनाइ घर कें, वास्तव में, ढौरनाइ भ' जायत छैक विचार कें। की ई कहैक आवश्यकता जे मैथिल संस्कृतिक विशिष्ट संज्ञामे घर मात्र वास्तु नञ विचार सेहो होइत अछि। मैथिल जतबा घर मे रहैत अछि ओहि सं बेशी घर ओकरा मे रहैत छै। घरक विचार आ विचारक घरमे मैथिलक आवाजाही मैथिल मोनक अपन वैशिष्ट्य छैक। एहि वैशिष्ट्य मे नव्यताक आग्रह ओकर प्राण छैक। सांस्कृतिक उन्मुक्तताक संबंध सांस्कृतिक विकल्पक चयन सं जुड़ल अछि आ विकल्पक अभाव मैथिलक जीवनमे अवसरक संकुचन सं जनमैत छैक। अवसरक संकुचन मिथिलाक भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक, ऐतिहासिक आ किछ हद तक सांस्कृतिक संरचनाक मूल वक्तव्य बनि विकल्पक न्यूनताक सूचना अछि, ताञ पंकज पराशरक एहि वेदनाके नजरि गड़ाक बूझ पड़त कि 'विकल्प हमरा लग कम अछि/ आ इतिहास आँखि गुराड़ि रहल अछि/ मुदा यात्रा स्थगनक कोनोटा सुझाव/ आब निर्थक छि'12

यात्रा पर बहरेनाइ बहुत जरूरी! कम-स-कम भौगोलिक स्थिति आ सामाजिक समर क संकेत करैत सारंग कुमारक पीड़ा बहुत किछ ध्वनित क दैत अछि, 'नहि अछि समुद्र/ नहि अछि पहाड़/ नहि अछि हमरा लग कोनो महानगर/ मुदा ओहू सं पैघ/ सोझाँ मे अछि ठाढ़ एक टा महासमर !'13 केहेन अछि ई सामाजिक समर! कहैत छैथ रमेश, 'देसी सरकार, विदेसी बेवहार। रन्ना पीठ पर, रन्नू सरदार। लासमे रस्सा कोसी सरकार। बचल-खुचल दाना, फलां गिरोह। फलां गिरोह, माइ चिल्लां गिरोह। पासमान-पहलमान, गिरोहे-गिरोह। बिहार सरकार, राइफलवला घोड़ा/ सरकारे-सरकार, सरकारे-सरकार। जोर लगा क' हइसा! सरकार के घीचू हइसा! परशासन घीचू हइसा! लोककें घीचू हइसा। चन्नर-भन्नर हइसा! चन्दायण आइ. बी. हइसा! वीरपुर आइ. बी. हाइसा! दिवारी-थान मे दूध आ लावा, बीयर-बारमे हइसा!'14 रमेश सांस्कृतिक आंतरिक गतिमयताक (Internal Dynamics) राग-रंग, गीत-ताल-लय आ प्रेमक संगहिं प्रशासनिक विद्रूपताके सामने रखैत सामाजिक समर के जाहि तरहें कविता मे अनैत छैथ ओ अवसरक संकुचनक सामाजिक समरक गाथा बनि जाइत अछि। एहि सामाजिक समर के पार पबै लेल चाही आमू-चूल सामाजिक परिवर्त्तन! की, क्रांति! मुदा अनका कपार पर चढ़िक क्रांति नञ भ सकैत अछि ताञ देवशंकर नवीनक चेताबैत छैथ 'अहाँक महफा पर कोना औतीह हमर मीता/ लेनिनग्रादसं मोहनपुर'15। संकेत साफ जं मीता हमर आ मोहनपुर हमर त महफो हमरे हेबाक चाही। नञ खाली महफा कनहो हमरे रहबाक चाही! अखैन त' मीता रूसल छैथ आ मोहनपुर दूर अछि ताञ विनय भूषणक शब्द मे बाबाक समाद मोन राखि। की कहने छलाह बाबा! 'बाबा कहने छलाह/ नदी माए थिकी/ जुनि करियह एकर पानिकेँ मलीन।/ बाबा कहने छलाह/ आकाशकें राखियह निर्मल'16। पानि नदी केँ होए कि आँखिक, पानिकेँ मलीन होम सं बचेनाइ आ कि आकाशकें रखनाइ निर्मल त' कठिन अछिए संगहिं शुद्ध पर्यावरणक चिंता स बहुत आगूक सांस्कृतिक चेतना अछि। नञ मात्र सांस्कृतिक चेतना एहि मादे सांस्कृतिक प्रतिज्ञा आ प्रेरणा सेहो!

दशक मे बान्हिक कविताकें बुझनाइ आलोचनाक अपन परिसरगत विवशता भ' सकैत अछि मुदा एकरा संवेदनाक सीमा मानि लेनाइ उचित बेबहार नञ। सांस्कृतिक उन्मुक्तताक उपलब्धता मानव विकासक अनिवार्य पक्ष छै आ कविता सांस्कृतिक उन्मुक्तताक आकांक्षाक पहिल अभिव्यक्ति; मैथिली कविताकें एहू तरहे देखबाक हम आग्रही। 

हमर अपन बहुत रास कथ्य-अकथ्य व्यक्तिगत सीमा अछि, जे कहब से थोर। एहि लेल हम क्षमायाची। नवम दशकक मैथिली कविताक पाट एतबे नञ। मुदा हम इत्यादि मे नामावली देबाक स हरदम बचैत रहल छी। हमरा अंदाज अछि, डरो जे बहुत किछ महत्त्वपूर्ण छूटि गेल मुदा ई हमर सीमा मैथिली कविताक नञ। फेर कोनो अन्य अवसर पर ओकरा समेटि सकब त हमरो नीक लागत।

एहि कार्यक्रम मे शामिल करबाक लेल मिथिला विकास परिषद, कोलकाताक प्रति आभार




1 मानव विकास रिपोर्ट 2004 : सांस्कृतिक उन्मुक्तता आ मानव विकास (CULTURAL LIBERTY AND HUMAN DEVELOPMENT) 
2 गंगेश गुंजन : भूमिका : मैथिली कविता संचयन: नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया 2005 
3 गीता, अध्याय - 18 (66) 
4 पंकज पराशरः मनोहर पोथीः समय केँ अकानैतः किसुन संकल्प लोक, सुपौल, बिहार 2004 
5 तारानन्द वियोगी: कोन उपायें छोड़ती माइ हमर संग: मैथिली कविता संचयन: नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया 
6 केदार कानन : हमरे लेल तँ: मैथिली कविता संचयन: नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया 2005 
7 केदार कानन : एक दिन एहिना : मैथिली कविता संचयन: नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया 2005 
8 सुस्मिता पाठक : शेष अछि प्राण-रस : मैथिली कविता संचयन: नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया 2005 
9 ज्योत्सना चन्द्रम : मोनः किछु कविता : मैथिली कविता संचयन: नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया 2005 
10 कुमार शैलेन्द्र : ओकर सपना : अंतिका, जुलाइ-सितंबर 2002 
11 कुमार मनीष अरविन्द : पोचाड़ा मे पैसि क” कविता सँ सम्पर्क : मिथिला दर्शन, मार्च-अप्रैल 2010 
12 पंकज पराशरः हे हमर पिता! : समय केँ अकानैतः किसुन संकल्प लोक, सुपौल, बिहार 2004 
13 सारंग कुमार : हम जे चाहै छी :अंतिका, जनवरी-मार्च, 2001 
14 रमेश : कोसी-भगइत : मैथिली कविता संचयन: नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया 2005 
15  देवशंकर नवीन : काल चक्र : मैथिली कविता संचयन: नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया 2005 
16 विनय भूषणः बाबा कहने छलाहः घर-बाहर, जनवरी-मार्च 2011

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