शनिवार, 16 अगस्त 2014

प्रसंग किरण जीः किछ जप, किछ गप

मैथिली'क किरण जी आ किरण जी'क मैथिली। किरण जी, अर्थात डॉ. काञ्चीनाथ झा 'किरण'। मैथिली भाषा, साहित्य, समाज'क युग पुरुष। मैथिली'क सामने जे कठिनाह डगर ओहि पर डेगाडेगी करबा स पहिने किरण जी'क समय, संगी, साथी, परिवेश के बुझनाइ जरूरी, ताञ आइ किरण जी के बुझनाइ जरूरी अछि। 

किरणजी नास्तिक छलाह। विद्यापति भक्त कवि। किरणजी राज विरोधी नहियो त राज विरक्त। विद्यापति राज कवि। तैयो किरणजी विद्यापतिक नाम पर मैथिली आंदोलन क प्रारंभ करबा स कोना आ कियेक जुड़ि गेलाह! किरणजी कहैत छैथ (किरण समग्र, एक, निबंध, यात्री-नागार्जुन) ▬▬
"विद्यापति जयन्ती” मनौल (1931 क प्रसंग)। म.. मुकुन्द झा बक्सी अध्यक्ष। स्वागत कयनिहार न्यायवेदान्त मूर्ति बालकृष्ण मिश्र। उपस्थित विद्वानमे पण्डित प्रकाण्ड मण्डल गेनालाल चौधरी, बलदेव मिश्र, सीताराम झा, बालबोध मिश्र, आनन्द झा. राधाकान्त झा, चन्द्रशेखर झा आदि। हिनका लोकनिक आगमन सुनि स्थानीय संस्कृत कॉलेजक विद्वान लोकनि जुमि गेलाह।
मिथिलाक गौरव-गाथा सँ वायुमंडल मुखरित भ' गेल। समारोहक परिणाम बड़ सुखद भेल। जे अपनाकेँ मैथिल मानि अनुग्रह करैत छलाह से मैथिल कहयबा मे गौरवक अनुभव करय लगलाह।....
ई परिवर्तन भेल विद्यापति जयन्तीक एक दिनक समारोह सँ आ' तकर सूझ देने छलाह वैदेहजी (बादमे यात्री/ नागार्जुन)। तञ हमर मन मानि लेलक जे चेहरे-मोहरे लटपटाह रहितहुँ भितरका बिन्हा बुधिआर छैथ।''

नागार्जुन सेहो नास्तिक। आब देखियौ जे ई दुनू नास्तिक साहित्यिक मिलक' भक्त कवि विद्यापतिकेँ मैथिली आंदोलनक' लेल महत्त्वपूर्ण मानलनि आ मिथिलामे विद्यापति स्मृति समारोहक' प्रारंभ कयलनि त एकरा कने धैर्य सँ बूझबाक दरकार अछि। पहिल आयोजनक जे सुखद परिणाम भेटलनि ओ किरणजीक लेल एहि संघर्ष पथक अशेष पाथेय भ गेलनि। एहि आयोजनक मुख्य लक्ष्य विद्यापतिक महत्त्वक स्थापना नहि भ'', विद्यापतिक नाम पर मिथिला समाजकेँ एकत्र क' मैथिल राष्ट्रबोधक उद्यापन बुझना जाइत अछि। मैथिल राष्ट्रबोधक बेगरता की? आजादीक आंदोलनक अध-बीच ई प्रसंग उठि गेल छलैक जे आजाद भारतक संरचनामे भिन्न जाति/ उपराष्ट्र/ भाषा/ समुदाय/ धर्मावलंबी आदिक स्थान की हेतैक। भाषावार राज्य गठनक आधार उभरि रहल छलै। भारत गणराज्यमे रहिक एकटा मैथिल राज्यक स्थापना स्वशासन के अधिक व्यावहारिक बना सकैत छलैक। मैथिली भाषा मैथिल उपराष्ट्र/ जातिक आधार नहि बनि सकल छलैक। ओकर किएक टा कारण भ सकैत छैक, ओहि पर विस्तार सँ अनत गप कयल जा सकैत अछि। मुदा एतबा मन पाड़ि देनाइ जरूरी जे राष्ट्रवादक उभार मे छापाखानाक, अर्थात भाखा मे साहित्यक छपेनाई आ समाज मे ओकर प्रचार प्रसार आ स्वीकृति परम आवश्यक उपकरण छलै। बंगाल सँ बिहार अलग भेल, मुदा मैथिल समाजक प्रश्न अनुत्तरित रहल। मैथिलीक संघर्ष ठामकठामहिं!

विद्यापति स्मृति समारोह जरूर अपेक्षाकृत लोकप्रिय भेल, मुदा मैथिल राष्ट्रबोधक उद्यापनक अपन मुख्य लक्ष्य सँ भोतिआयल जकाँ भ गेल। जकर गंतव्य बोध बिसरा जाइ छै, ओकर रास्ता हरा अवश्ये जाइ छै! एहेन यात्री चलैत त' रहैत अछि, मुदा पहुँचैत कतौ नहि अछि! ''विद्यापति स्मृति दिवसक स्वरूप'' नाम सं मिथिला मिहिर, 22 नवम्बर 1964 में प्रकाशित लेखमे किरणजी कहैत छैथः
''गत किछु वर्ष सँ विद्यापति स्मृति दिवस बेस व्यापक रूपेँ मनाओल जा रहल अछि। मुदा जत' समारोहसँ मनाओल जाइत तत एकर रूप हमर मतेँ भोतिआयल-सन रहैछ। हमरा लोकनि रवीन्द्र जयन्तीकस्वरूपकेँ आदर्श बनाय विद्यापतिओ दिवसक आयोजन कर' लागल छी। विद्यापति-संगीत, विद्यापति-नृत्य, विद्यापति पदावलीक विवेचन आदिकेँ प्रधानता भेट' लागल अछि। आब तँ विद्यापतिक समस्त ग्रन्थक आलोचनाक आयोजन भ' रहल अछि।
जखन भारत स्वाधीन नहि भेल छल, तहिया छब्बीस जनवरीकेँ गणतंत्र दिवसक जे रूप छलैक, ताहिसँ कतेक भिन्न अछि आजुक गणतंत्र दिवसक रूप?
हमरा जनैत, एहने अन्तर रहक चाही विद्यापति स्मृति दिवसक आ रवीन्द्रनाथ स्मृति दिवसक रूपमे।.... मैथिल समाजमे, स्वराज्यसँ पूर्वक स्वदेशी भावनाकेँ उत्पन्न करब, ओकर पोषण संबर्धन करबे आवश्यक। मैथिली एखन संघर्षक स्थितिमे अछि। संघर्षक स्थिति मे शक्तिक संचय, साधनक संग्रह तथा बलिदानक पाठ अनिवार्य छैक, तखने संघर्ष मे बल अबैत छैक। एहि विषय पर ध्यान रखैत विद्यापति स्मृति समारोहक रूपरेखा बनब उचित।''

आइ मैथिल समाजक सब स्तरक सामाजिक समूह, व्यक्ति, विद्यापति समारोह मनाववाला अनुरागी लोक आ संस्था, विद्यार्थी सबकेँ जोड़िक मैथिल समाजमे, स्वराज्यसँ पूर्वक स्वदेशी भावनाकेँ उत्पन्न करब, ओकर पोषण संबर्धन करब की संभव हेतै...? 

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल

मोहन भारद्वाज आ डॉ. कैलाश नाथ झा संपादित किरण समग्र, खण्डः एक (निबंध) पढ़ि रहल छी। संपादक द्वय धन्यवादक अधिकारी छैथ। एहि संग्रहक महत्त्वपूर्ण अंश पर अपेक्षाकृत विस्तार स बाद में अखैन त पढ़ि रहल छी। 

एहि संग्रहक 'फकड़ा' स एक प्रसंगः
'विद्यापति कहैत छथिः जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल। विद्यापति महापण्डित छलाह। परंतु हुनक प्रेमक आधार छलैन रूप आ तृप्तो आँखिए होइतनि। हृदयकेँ तृप्ति क संग सम्बन्ध छलै से शब्दसँ स्पष्ट नहिं होइछ। दोमस 'जनम अवधि' क प्रयोग सुंदर नहि अछि। कारण प्रेमक बोध जन्मतहि नहिं होइत छै। ई गुण समर्थाइक थिकै। संग-संग 'निहारल' भेल अतीत काल मे ल जाइत अछि। जाहि सँ कहबक कालमे ओकर मनक भाव केहेन छै से बोध नहि भ सकैछ। आब फक्कड़क कथन सुनूः
आँखि मुनि हम सदिखन देखी
कखनहुँ जी न अघाय।
सखि हे प्रीतक रीति बलाय।।
फक्कड़ नायिका आँखि मुनि कय देखि रहल अछि सदिखन आ कखनहुँ ओकर जी नहिं अघायत छै। कहबक कालहु मे देखि रहल अछि।
रूप नहिं आंतरिक गुण छै ओकर प्रेमक आधार। तञ ने आँखि मुनि कय देखैत अछि।
कखनहुँ जी नहि अघाइ छै। अघाय शब्द केहन चमत्कारक अछि। अघाय मे जे भाव छै से तिरपित कतय पाओत?
तञ कहैत अछि 'प्रीतिक रीति बलाय'। आँखि मुनि कय देखय पड़ै छै आ जी अघाइत ने छै। कार्यक पर्यवसान नहि होयबाक कारणे बलाय-झंझट थिक। अघान-तृप्तिए सुख थिक कि ने!
आइ जँ ई पद कोनो पण्डितक रहैत तँ विद्यापति कतेक दूर धकेलि देल जैतथि से अनुमान सँ बाहर अछि। परंतु ई त फकड़ा थिक। एकर रचियता राजमुकुटमे जड़ल नहि जा सकल खानिक अपरिचित मणि जकाँ पाथरे रहि गेल।'

आब पहिने तत्काल संदर्भ लेल देखल जाओ, विद्यापतिक पूरा पदः

'सखि, कि पुछसि अनुभव मोय।
से हों पिरीति अनुराग बखानइत, तिल-तिले नूतन होय।
जनम-अवधि हम रूप निहारल, नयन न तिरपित भेल।
सेहो मधु बोल स्रवनहि सूनल, स्रुति-पथ परस न भेल।
कत मधु जामिनि रभसे गमाओल, न बुझल कइसन गेल।
लाख-लाख जुग हिये-हिये राखल, तइयो हिय जुड़न न गेल।
कत बिदग्ध जन रस अनुमोदइ, अनुभव काहु न पेख।
विद्यापति कह प्राण जुड़ाएत लाखे मिल न एक'

किरणजीक मोन में विद्यापति क महत्त्व क प्रति बहुत सम्मान छैन। आलोचनात्मक अनुबंध कोनो संबंधक बुनियादी आधार किरणजी क स्वभाव छैन। एहि स्वभाव में किरणजीक शक्ति छैन, सीमा सेहो।

जहिना, किरणजीक मोन में विद्यापति क महत्त्वक प्रति बहुत सम्मान छैन तहिना हमरो मनमे किरणजीक प्रति सम्मान अछि। परंतु ई सम्मान हमरा ई कहबा स नञ रोकि सकैत अछि जे किरणजीक ई कहनाई ठीक नञ जे, 'आइ जँ ई पद कोनो पण्डितक रहैत तँ विद्यापति कतेक दूर धकेलि देल जैतथि से अनुमान सँ बाहर अछि। परंतु ई त फकड़ा थिक। एकर रचियता राजमुकुटमे जड़ल नहि जा सकल खानिक अपरिचित मणि जकाँ पाथरे रहि गेल।' कारण, फकड़ा मे 'आँखि मुनि हम सदिखन देखी' जाहि स्वानुभूति क प्रसंग छै, विद्यपतिक पद मे 'सेहो मधु बोल स्रवनहि सूनल, स्रुति-पथ परस न भेल' ओहि तरहक स्वानुभूति नञ छै। फकड़ा मे अनुरागक अनुभव छै, त विद्यपतिक पद मे म्लान मन स उपजल उपरागक बखान छै। विद्यपतिक पद मे शब्दाडंबर में 'तिल-तिले नूतन होय' अर्थात अस्थिर पुरुष प्रेमक अभिव्यक्ति के प्रति एक तरहक खौंझाएल विरक्ति छै ▬▬ 'कत बिदग्ध जन रस अनुमोदइ, अनुभव काहु न पेख'। उपालंभ जे बिदग्ध जन रस देखैत छैथ, अनुभव के नञ परखैत छैथ! 'देख' 'पेख' मे अर्थ क एक टा अंतर छै। 'देख' एहि प्रसंगे इंद्रिय प्रधान, 'पेख' बुद्धि प्रधान परखक ध्वनि दैत। विद्यपतिक बादक कवि तुलसीदास जखैन 'मज्जन पल पेखिअ तत्काला' कहैत छैथ त एकरो, बुद्धि स परखबाक संदर्भे स बूझल जा सकैत अछि। 'जनम अवधि' क प्रयोगकेँ एहि तरहे बुझनाइ उचित जे ई 'अस्थिर पुरुष प्रेमक' जन्म सँ संबंधित छै आ ओकरे ध्वनित (qualify) करैत छै नायिकाक जन्म सँ नञ त संबंधित छै आ ने ओकरा ध्वनित (qualify) करैत छै

एहि प्रसंगे, विद्यपति क पद आ फकड़ा दू भिन्न आ लगभग विपरीत मति क काव्योक्ति अछि आ ताञ एहि तरहेँ अतुलनीय। ई ठीक जे, 'अघाय शब्द केहन चमत्कारक अछि। अघाय मे जे भाव छै से तिरपित कतय पाओत?' तिरपित भेलाक बादे अघेबाक स्थिति छैक। विद्यापतिक पद 'अस्थिर पुरुष प्रेम' मे त तिरपितो होयबाक सुख नञ छै, अघेनाइक कथे कोन! बहुत विनम्रता पूर्वक, किरणजीक स्थापना स असहमत जे 'आइ जँ ई पद कोनो पण्डितक रहैत तँ विद्यापति कतेक दूर धकेलि देल जैतथि से अनुमान सँ बाहर अछि। परंतु ई त फकड़ा थिक। एकर रचियता राजमुकुटमे जड़ल नहि जा सकल खानिक अपरिचित मणि जकाँ पाथरे रहि गेल।' ओहुना सुनल अछि जे 'खानि' मे नहि, 'मणि' अनतै पाएल जाइत छै!

फेर कहै छी, एहि संग्रहक महत्त्वपूर्ण अंश पर अपेक्षाकृत विस्तार स बाद में अखैन त पढ़ि रहल छी, सीख रहल छी। अखनि पढ़ दिअ, अखन सीख दिअ।

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किरण समग्र
खण्डः एक
(निबन्ध)

सम्पादकः
मोहन भारद्वाज
डॉ. कैलाश नाथ झा
किरण-साहित्य शोध संस्थान
धर्मपुर, लोहना रोड, दरभंगा
पहिल संस्करणः 2007 इ.

स्वत्वाधिकारः कैलाश नाथ झा
मूल्यः दू सय पचास टका

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गुरुवार, 14 अगस्त 2014

अंगने में हेरायल : अपना के तकैत



पहिने किछु प्राथमिक निवेदन 


कोनो समुदाय के मन के बूझ’ लेल साहित्य सँ अधिक विश्वसनीय आधार की भ’ सकैत अछि? ताहू में कविता त’ हमरा जनैत ओहि समुदाय आ समाज के भाव-सत्ता तक पहुँच बनेवा’क सब सँ भरोसगर माध्यम होइत छैक। कविता पढ़ै सँ पहिने हमरा मन में सदिखन ई जिज्ञासा ठाढ़ भ जाइत अछि जे कविता अपना समय सँ राजनीति क संवाद होइत छैक आ की कविता समय सँ समाज क संवाद होइत छैक? भ’ त इहो सकैत अछि जे एहि दूनू क संग-संग आ ई दुनू सँ इतर कविता में अन्यो भाव-प्रसंग क लेल जगह बचैत वा बनैत होइक! ई जिज्ञासा तखन आर गहींर भ’ जाइत अछि जखन मैथिली भाषा में लिखल कविता के पढ़वाक प्रयास करैत छी। कारण ? कारण ई जे हमरा जनैत मैथिली समाज अपन मूल रूप में अखनो एकल समाज अछि। खास’क साहित्यक प्रसंग मे। राजनीतिक आ अर्थनीतिक स्तर पर सामाजिक जीवन के नीक-बेजाए ढंग सँ प्रभावित करैक मिथिलेतर प्रसंग भले सक्रिय होमए आ एहि बाटे भने ओकरा माथा के मिथलेतर ताकत मथैत होमए मुदा ई त’ कहले जा सकैत अछि जे ओहि प्रभाव’क साहित्यिक अभिव्यक्ति में अन्य सामाजिक’क कोनो साक्षात येगदान वा दखल नहिं होइत छैक। मैथिली साहित्य आ कविता क’ रूप आ तत्त्व रचना निरपवादत: मैथिल मन पर आश्रित अछि। तात्पर्य जे कि दुनिया क’ दोसर व्यापक भाषा में लिख’ जा रहल साहित्य में जरूरी नहिं छैक जे ओकर लिखनिहार ओहि जाति के होथि। उदाहरण’क अंग्रेजी में लिखल जा रहल सांप्रतिक साहित्य के लेल जा सकैत अछि। अंग्रेजी में लिखनिहार जरूरी नहिं जे अंग्रेजी जाति क सदस्य होथि। एक समय ई जरूर मनल जा रहल छलैक जे आन भाषाभाषी कतेको नाक रगरलाक बादो ओहि जाति में स्वीकृतहोइ योग्य महत्त्वपूर्ण साहित्य नहीं लिख सकैत छथि। आइ ई धारणा टूटि गेल छैक। कम सँ कम अंग्रेजी आ हिंदी क उदाहरण हमारा सभक सामने में अछि। हिंदी साहित्यक समकालीन परिदृश्य के देखल जाए त महत्त्वपूर्ण कवि व रचनाकार क उच्च शृँखला में नागार्जुन, मुक्तिबोध, रांगेय राघव, फणीश्वर नाथ `रेणु', राजकमल चैधरी, च्रद्रकांत देवताले अदि सन’क अनेको उदाहरण सहजहिं भेट जाइत। ओकर कारण छैक हिंदी अपन बनावट में बहुजातीय भाषा अछि। जातीय भाषा आ बहुजातीय भाषा’क साहित्य क भाव-प्रसंग में अंतर भेनाइ स्वाभाविके। आन अंतर पर त’ बाद में चर्चा कयल जा सकैत अछि मुदा एहिठाम एतबा टाँकि रखनाइ जरूरी जे बहुजातीय भाषा अपन स्वभाव सँ राजनीतिक आ ताँइ वैचारिक संवाद’क भाव-प्रवणता बेसी होइत छैक जखनि की जातीय भाषा’क साहित्य में सामाजिक आ ताँइ संवेदनात्मक संवाद’क प्रवणता बेसी होइत छैक। बहुजातीय भाषा’क साहित्य में चेतना’क अनेक आ भिन्न स्तर होत दैक त’ जातीय भाषा’क साहित्य में संवेदना’क एक आ लगभग अभिन्न स्तर होत छैक। मुदा ई बात नैञत’ एतबे सहज छैक आ नञ एक टा सरल रेखा पर एकरा आँकल जा सकैत अछि। कहल जाइत छैक जे इजोत सोझ रेखा में चलैत अछि मुदा साहित्य में सक्रिय इजोत संवेदना क वक्र रेखा पर चलैत अछि। आजु क समय तीव्र सम्मिलन आ संगहिं बिछोह का समय अछि। एहेन समय में शुद्धता’क आग्रह’क वैधता बनि नञ सकैत अछि। एहेन समय में मैथली साहित्य में शुद्ध मैथिली मन’क सक्रियता’क अग्रह’क की अर्थ भ’ सकैत अछि ! ई सब बूझितो यदि हम मैथिली कविता में मैथिल मन के तकै’क चेष्टा कर’ जा रहल छी त’ ओकरो कारण छैक। समाज’क मन बदलि रहल छैक। शुद्धता’क आग्रह अपन स्वभावे सँ परिवर्त्तन रोधी होत अछि। मुदा परिवर्त्तन तँ दुनिया’क नियम छैक। एहि नियम’क सामने शुद्धता’क आग्रह टिक नहिं सकैत अछि। मैथिल समाज’क एहि बदलैत मन स मैथिली साहित्य’क संबंध ताकल जा सकैत अछि। एकर अपन समाज शास्त्रीय आवश्यकता भ’ सकैत छैक त’ सामाजिकता’क पुर्गठन में सेहो एकरा जोतल जा सकैत अछि। एकटा अव्याख्येय टीस आ छटपटी संग हम मैथिली साहित्य लग आब’ चाहि रहल छी। ई ककरो पर उपकार नहिं। ई सत्त अछि जे हम मैथिली साहित्य में सक्रिय नञ रहल छी। सत्त कहल जाए त’ नञ रचनाकार’क रूप में आ नञ गंभीर पाठके’क रूप में। तखन की हम मैथिली साहित्य में बाहरी छी ! कियो मानिये सकैत छथि। मुदा हम अपना केँ बाहरी नहिं बुझैत छी। कारण हम मैथिल छी त’ मैथिली साहित्य हमरा आत्माभिज्ञान में प्रामाणिक रूप सँ मदद क’ सकैत अछि। कहै’क दरकार नहिं जे आधार केकरो आत्मााभिज्ञान’क प्रामाणिक आधार दैत छैक वा द सकैत छैक ओहि आधार’क निकृष्टतमो अर्थ में ओ बाहरी नहिं भ’ सकैत अछि। त’ की हम या हमरा सनक लोक जे कोनो स्तर पर हिंदी में कोनो स्तर पर सक्रिय छथि ओ हिंदी साहित्य में बाहरी छैथ वा बाहरी भ’ सकैत छैथ! हम कहब नञ! कारण हिंदीयो हमर आत्माभिज्ञान’क आधार तैयार करैत अछि। आइ हमर सभ’क आत्माभिज्ञान बहुआधारीयता पर अवलंबित अछि। आत्माभिज्ञान’क एकटा आर नाम अस्मिता भ’ सकैत अछि मुदा हमरा आत्माभिज्ञाने सुटगर लागि रहल अछि। तखन ई गप्प जरूर जे कतेक बाहरी आ कतेक अपन जन! ओना त’ अजुका समय एहने भ’गेल छैक जे घर नोते नञ, बाहर नोत! जँ पूँजी संपन्न छी त’ अहाँ कतौ बाहरी-भीतरी द्व्रंद्व सँ ऊपर छी। नञ छी त’ सबतरि बहरिये हेबाक मारि खइत अपरतिभ आ हबोडकार भेल घुरू। बान्ह सँ खत्ता’क उँच भ’ जेबाक आ डीही पर भगिनमान के भारी पड़बा’क समय में बाहरी-भीतरी’क द्वंद्व अपन अंतर्वस्तु आ सारांश में बदलि गेल अछि। जे राजसत्ता अपन नागरिक के नागरिक अधिकार सुनिश्चित करबा सँ मन तोड़ि रहल अछि से दुनिया भरि के पूँजी आ पूँजीपति के कल जोरि’क नोति रहल अछि आ ताञ `बाहर का आकर खा गया, घर का गाया गीत'! समाज-आर्थिक कारण सँ मैथिल जाति’क श्रम आ मेधा त आरंभहिं सँ प्रवास पर रहल अछि। एहि प्रवास में भौगोलिक आ सामाजिक दूनू स्तर पर आत्म-प्रवासन के समाहित बुझवा’क चाही। संगहिं एहि आत्म-प्रवासन केँ आत्म-निर्वासन सँ फराक सेहो बूझबाक चाही। सावधानीपूर्वक ई मानल जा सकैत अछि जे आत्म-प्रवासन कतौ-कतौ आत्म-र्विासन में बदलि जाइत छैक मुदा सबतरि नञ।

ई निवेदन बूझू’त मुखर चिंतन। अपनाकेँ टोहियेबा’क चेष्टा। एहि तरहेँ मैथिली कविता में अपनाकेँ ताकब शुरू करबा सँ पहिने आँखि मीर लैत छी। बिन कहनो बूझल जा सकैत अछि जे आँखि मीरनाइ आरँखि फोरनाइ नहिं होइत छैक।

एक संग्रह किछु विचार 

विद्यानन्द झा विचारशील व्यक्ति छथि। संवेदनशील कवि। ई हम एहि दुआरे कहि सकैत छी जे अजुका समय में जे सक्षम छथि से विचारशील नहिं हेता तँ कविता कियेक लिखताह! आ वो जँ संवेदनशील नहिं हेता त’ कविता कोना लिखि पवता! विद्यानन्द जी सक्षम छथि आ कविता लिखि पबै छथि। ताँइ ई मानै मे संकोचक कोनो कारण नहिं जे ओ विचारशील वयक्ति आ संवेदनशील कवि छथि। की हम व्यक्ति आ कवि में अंतर करबाक अतिरिक्त प्रयास क’ रहल छी? व्यक्ति आ कवि मे अंतर देखनाइ वा केनाइ उचित अछि की नहिं आ जँ उचित अछि तँ कतेक दूर तक उचित अछि ई प्रश्न बहुत नम्हर अछि। एहि अवसर पर हम एहि प्रसंग मे अपना दिस सँ आगाँ बढ़ नहिं चाहैत छी। एहि लेल कोनो दोसर अवसर क प्रतीक्षा क धैर्य राख चाहै छी। एहि अवसर पर त’ ह विद्यानन्दे जी क संग गेनाइ उचित मानैत छी। ओ कहै छथि, `हमर कविक दोसर दौर राजनीतिक कक्ष आ जीवन सँ जुड़ल बेसी अछि। अपन समयक कैकटा घटना, कैकटा बसात, कैकटा गंध, कैकटा दृश्य हमरा आलोड़ित करैत अछि आ हम कविता लिखि बैसैत छी ज्ञ् ओहिना जेना पुरान महिला टेनिस खेलाड़ी मार्टिना नवरातिलोवा मैच खेलाइत बड़बड़ाइत रहैत छलीह। तेँ हम पहिने मनुक्ख, तखन कवि। हमरा लेल पहिने जीवन, तखन कविता। तेँ हमरा मे कविमुद्राक अभाव आ हम अपना केँ गृहस्थ कविक रूप में देख' चाहब। राजनीतिक कक्ष में जीवन’क अभिव्यक्ति, चाहे काँच हो कि पाकल हो, चाहेे संवेदना के स्तर पर हो कि सक्रियता क स्तर पर हो वो ओहेन निरुद्गेश्य आ अर्थहीन त’ नहिं भ सकैत अछि जेहेन मार्टिना नवरातिलोवा मैच खेलाइत बड़बड़ेनाइ! ओ `पहिने मनुक्ख, तखन कवि' ठीक मुदा एहेन के जे पहिने कवि तखन मनुक्ख! ई संवेदनशील कविक वक्तव्य थिक कि विचारशील मनुक्ख? जिनकर होइन मुदा छैन एक कनमा भरिगर। भोग आर यथार्थ दूनू के अर्थ बदैल’क कविता क बनाओल जा रहल नव व्याकरणक परना पाठ पर गप्प फेर क लेब। अखन हम फेर विद्यानन्दजीक ई कथन मानि लैत छी जे हुनकर कविता हुनकर `कविक भोगल यथार्थ छी।' सब सँ लग हुनका लगैत छनि `कोनो चरवाहक गीत गायब अपन कविताक।' मुदा अहाँ त’ ओहि सपनाकेँ बचेबा’क प्रार्थना आ संकल्प करैत `पराती जकाँ' अंतिम टाहि सुनबैत विदा भेल छी, `प्रार्थना करैत छी / एहि क्षण हम / बचेबाक एहि सपना केँ / संकल्प लैत छी।' साधारण सपना केँ नहिं ओहि सपना केँ जे `ओ / हाथ मे दू टा काठी ल' सुइटर बुनैत अछि / नहि / सपना बुनैत अछि' ।

मार्टिना नवरातिलोवा मैच खेलाइत बड़बड़ेनाइ आ चराउर में चरवाहक गीत गेनाइ’क बीच जे परती जमीन ताहि पर `पराती जकाँ' जे गीत ओ भोग आ यथार्थ दूनू के नव अर्थ दैत से संभव। `पराती' में ई अवश्ये असंभव मुदा जे `पराती' नहिं `पराती जकाँ' ओहि में त’ सब किछु संभव तेँ इहो संभव। चयनकर्त्ता आ संपादन केनहार मोहन भारद्वाज क मंतव्य अवश्ये विचारणीय। मोहन भरद्वाजक शब्द मे, `विद्यानन्द झा जेँ लोक-जीवनक कवि छथि तेँ हुनक रचना मे ओ जीवन सम्पूर्णता मे भेटैत अछि। यैह दृष्टि हुनक कविताक परिचय थिक। सही मैथिली कविताक परिचय सेहो।' विद्यानन्दजी लोक-जीवनक कवि छैथ! कोना? एहि घोषणा क आधार स्पष्ट नहिं आग्रहक आधार त’ नहिं मुदा आग्रहक निहितार्थ बूझबाक प्रयास कयल जा सकैत अछि। कविक सावधानी केँ चयनकर्त्ता आ संपादन केनिहार मोहन भारद्वाज ध’ क’ चलल रहितथि त’ ओहो कहितैथ जे `लोक-जीवनक कवि जकाँ छथि'। मुदा जखन `पराती' सँ बेसी प्रामाणिक आ महत्त्वक `पराती जकाँ' के साबित करवाक हड़बड़ी हो त’ लोक-जीवनक कवि जकाँ के हठात् लोक-जीवनक कवि घोषित क देनाई में आश्चर्य तकनाइ सँ बेसी जरूरी एहि कथन केँ आश्चर्य जकाँ नेनाइ नहिं हेतैक? ई ठीक जे उत्तर-आधुनिकता अपन मिजाज मे बहुत किछु पूर्व-आधुनिकता सेहो अछि। एकर की कएल जा सकैत अछि जे एके माघे भलहिं निभल नहि जा सकैत हो मुदा सब माघ एके ढंगक नहिं होइत अछि। उत्तर-आधुनिकता मे निहित पूर्व-आधुनिकता अपन बुनावट में आधुनिकता-पूर्व क’ स्थिति के हासिल नहिं क’ सकैत अछि। हँ ई आधुनिकता-पूर्व जकाँ भ’ सकैत अछि। भ’ सकैत अछि, तैयो ई बाधा त’ रहबे करत जे आधुनिकता-पूर्वक जीवनक संपूर्ण सत्ता लोक-जीवन नहिं छल! तखन ई जरूर जे आधुनिक-जीवनक नागर-स्वरूप क संवेदनाक भिन्न-स्तरीयता केँ चिन्हैत आधुनिकता लोक-जीवन सँ फराक भ’ गेल। जीवन के लोक आ लोकेतरे के चिन्हनाइ त’ आधुनिके नजरि सँ संभव भ’ सकैत अछि। जाहि कवि के भारतीय शास्त्रीय गीत सूनब खूब रुचैत छै ओहि कवि के मैथिल लोक-जीवनक `सम्पूर्ण सत्ता' केर संधान चयनकर्त्ता आ संपादन कर्त्ता क अद्भुत आ उद्भभट प्रतिभे सँ संभव हमरा संदेह अछि जे कतेक पाठक में हुनकर घोषणा सँ सहमत होएवाक ई अद्भुत आ उद्भभट प्रतिभा हेतैन।

मुदा विद्यानन्दजीक कविताक टीस मैथिल-जीवनक टीस के अवश्ये अभिव्यक्त करैत अछि। मैथिल-जीवन मे बहुत तेज परिवर्त्तन घटित भेल अछि। ई परिवर्त्तन अनतहुँ लक्षित कएल जा सकैत अछि। नवका बसात एहेन जे जीवनक छोट-छोट आ अपन वैभव के हिलकोरिक बड़का में मिला द’ जीवन के सार-हीन क’ रहल अछि। सार सोखिनिहार एहेन समय मे कवि मे एहि बसात के चिन्हबाक संवेदना आ एहि कटानक हाहाकर के ताकीद करैत पूछैत अछि जे, `आर कतेक दिन / जखन / कैथनियाँ पहिने हैत / पटना एक सै चारि / आ तखन दिल्ली एक हजार चारि / आ फेर / अमेरिका एक लाख चारि। / / आर केतक दिन ?' 

भारत क विभिन्न समाजक मनोभाव वा मूल्यबोध मे आजादीक बाद सँ एकटा परिवर्त्तन भेनाई शुरू भेल छलैक। मैथिल समाजक मनोभाव मे सेहो परिवर्त्तन भेनाई शुरू भेल छल। भारतक विभिन्न समाजक आंतरिक संरचना मूल्यबोधक अपन वैषिष्ट्य छैक। परिवर्त्तन का असर वोहि वैशिष्ट्य मे सबस अधिक भेेनाइ शुरू भेल छलैक। आर्थिक दृष्टि सँ मिथिलाक एकटा भिन्न स्थिति पर ध्यान देनाई आवश्यक। शस्य-श्यामला मिथिलांचल मे खाद्यान्न आ खाद्यांशक सिंह-भाग कृष्येतर स्रोत सँ भेट जाइत छलैक। बारी मे साग, डबरा मे माछ, चार पर कुम्हर-कदीमा-सजमनि, टाट पर लत्ती-फत्ती, प्रकृति संपोषित मैथिल-जीवन अपना माटि पर पराती गबैत सांसारिक दुखक फसिल के संतोषक बरद जोति दाउन करैत भाँगक संगे घेंटि लैत छल। गरदनि मे झुलैत रुद्राक्ष आ कंठ सँ निकलल नचारी सँ मिथला क बसात गनगनाइत रहल छल। आत्म-निर्वासन आ आत्म-प्रवासन ओकरा चित्त क स्थाई भाव छलैक। मिथला मे आर अकटा मिथला छलैक ▬▬ आइ जकरा दलित, पिछड़ा मिथला कहल जा सकैत अछि। अर्थात द्विज-कायथेतर मिथिला। एहि स्थिति सँ अनभिज्ञ रहनाई, आइ निश्चिते अपराध। तखन ई जरूर जे मिथलाक सामाजिक अंतर्बद्धताक अपन वैशिष्ट्य सेहो छलैक। मध्य आ पश्चिम भारतीय जनपदक सामाजिक अंतर्बद्धताक तुलना मे एहि वैशिष्ट्य के अलग सँ चिन्हित कयल जा सकैत छलैक। मुदा समयक संग एहि वैशिष्ट्य मे भारी क्षरण सँ सेहो मुहँ फेरनाइ ठीक नहिं। पहिने `दिल्ली एक हजार चारि' होइत जैबाक प्रक्रिया आ फेर अजुका भूमंडलीय बसात मे `अमेरिका एक लाख चारि' होयबाक प्रक्रियाक कारस्तानी के चिन्ह पड़त। की हम एहि लेल तैयार छी? कोनो हड़बड़ी नञ मुदा आइ नञ त काल्हि कह’ जरूर पड़त! दुनियाक सब समाज एक बेर फेर आत्मान्वेषणक प्रक्रियाक सम्मुखीन अछि त एकर कारणो छैक। `अमेरिका एक लाख चारि' होइत मिथिला मे मिथलाकेँ फेर सँ ताक’ जरूरे पड़त। एहि आत्मान्वेषणक अभाव मे आत्मगठन संभव नहिं। आत्मगठनक पुनर्प्रक्रिया के प्रारंभ केने बिना निस्तार नहिं। पुनर्नवा नहिं भेला पर वृद्धा मैथिली अंतत: गनैत रहि जेती मुखिया'क फाँट। बिन कहनो बूझले जा सकैत अछि जे एहि दुर्दिन मे मुखिया, पटना-दिल्ली मे नहिं, अमेरीकाक राजधानी में मचान लगौने छथि। ताञ ई बुझनाई जरूरी जे किये कवि अकानैत छथि जे, `भ' सकैए / गनैत होथि / वृद्धा पेंशनक डेढ़ बीसी टाका / आ ओहि मे मुखियाक फाँट' ।

आजादीक आंदोलनक संघर्षक बीच सँ एकटा नव आधुनिक भारत राष्ट्रक उदय भ’ रहल छल। भारत के आधुनिक मूल्यबोध सँ संपन्न समतामूलक भारतक स्वप्न एहि संघर्षक बीज स्वप्न छल। मिथला सेहो एहि स्वप्न आ संघर्षक संग आगू बढै लेल तत्पर छल। मुदा जल्दिये ई स्वप्न आ संघर्ष बउआइत-बउआइत अंतत: विपथित होइत गेलैक। एतै पैघ विपथन आ दुर्घटनाकेँ मैथिलीक कविता पर केहेन प्रभाव पड़लैक से अलग सँ पड़ताल का वस्तु। मुदा एकर नतीजा कविता मे अभिव्यक्त भेल जे, `बाबू / '52 में पढ़ैत छला / मार्क्स आ लेनिन / करैत छला बहस / सत्ता हस्तांतरण पर, / बाबू / आइ ध' लेलनि अछि / सूत्र वाक्य - / राड़ं घोड़ं एड़ं पवित्रं / जे भेटल छलनि हुनका / मरौसी में। / / बहिन / '67 में छोड़ चाहैत छली / स्कूल / बाँटि देब' चाहैत छली / अपन हिस्सा जमीन / मुसहर सब मे / बहिन / आइ जोखै छथि / खखरी घान बोनि मे / खियेलहा बटखरा ल' क'। / / हम आइ लिखैत छी कविता / अन्हारक विरुद्ध / आ देखैत छी स्वप्न / इंद्रधनुषक, / मुदा हमही / कौखन / देखैत छी आपन मन मे / कामदृश्य / ओहि बोनिहारिनक संग / जकर माय पियौने छलि दूध / हमरा तीन मासक अवस्था मे।' समताक स्वप्न आ संघर्ष बउआइत-बउआइत रापथ पर चढ़ै लेल अधीर मुदा, `तय ई तँ कथमपि नहि भेल छलै / जे घुसि जाइ हम / कोनो गली-कुची बाटे / राजपथ पर' । राजपथ पर गति-मतिक अपन माया संसार भवसयाइत रहैत छै। आक्रोशक लेल ई माया संसार वर्जित प्रदेश होइत छैक आ दुखो फुटली आँखि नञ सोहाइत छैक। कविता साक्षी मे कहल जा सकैत अछि जे `हमरा दु:ख एहू बात बातक अछि / जे / हमर ई दु:ख / नहि रूपान्तरित भ' सकल आक्रोश मे, / ई नपुंसक मुद्रा तँ / अभीष्ट नहि छल हमरा।' तखन जँ दुख भेल त’ ओहि दुखो के बचाके रखनाइ जरूरी। एहि लेल पैघ मन चाही। छोट मन मे नञ नोरे अरघै छै आ नञ खिल-खिल हँसीक अनुगूँजे टीकैत छैक। एहि लेल सब केँ सचेष्ट रह पड़त किएकत’ जल्दिये `मुदा फेर / फेर जन्म लेत / एकटा नव घनगर पलाश-वन / आ फेर फुलायत / आक्रोश सँ आरक्त / कोनो खेतिहर मजदूरक मुहेठ / सन लाल / पलाशक फूल।' 

एकटा कठिन-करेज समय मे नव पीढ़ी आँखि खोलैत आत्म-संबोधोनक मुद्रा मे पश्चाताप क सकैत अछि जे `एहना समय मे / अयलहुँ अहाँ / जखन / जखन दूध पी रहल छल / मूर्त्ति सभ / अवाक् पीबि रहल छल लोक / एहि दृश्य केँ / कोनो मसीहाक प्रतीक्षा मे / आ खून पीबि रहल छला / धर्मक ठेकेदार सभ / नुकायल भाँति-भँति रंगक चोंगा मे।' मुदा ई विश्वास आ बुझबाका उहि सेहो आसानी सँ अर्जित कएल जा सकैत अछि जे `मूर्त्ति' के चाहे कतबो मन दूध पिआओल जाए ओकरा विचारक पहाड़ मे नहिं बदलल जा सकैत अछि। आ कारी काया सँ पलाशक लाल फूल दूध पीनहुँ बिन वन के अपन संवेदनाक गहीर रंग मे रंगि दैत छैक। विद्यानन्द झा क कविता विचारक पहाड़ के कटैत संवेदनाक फूलायल पलाश-वन क संधान करैत छथि। एहि छलकारी समय मे जतबे गति चाही ततबे धैर्य। गति मे स्थैर्य आ स्थैर्य मे गतिक धैर्य अजुका कविताक एकटा जरूरत छैक। आशा कयल जा सकैत अछि जे मैथिली क कवि एहि सामाजिक आ ताञ काव्य जरूरत के अवश्ये चिन्है छथि।

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

सांस्कृतिक उन्मुक्तताक आकांक्षाक रूप मे कविता

संदर्भ नवम दशकक मैथिली कविता 

'तीन कारण स मानव विकासक सांस्कृतिक आयाम पर गंभीरतापूर्वक ध्यान देब जरूरी। पहिल, सांस्कृतिक उन्मुक्तता मानव स्वतंत्रताक महत्त्वपूर्ण पक्ष होइत छै जाहि मे उपलब्ध वा उपलब्ध भ' सकवाला विकल्प के अपनाक लोक कें इच्छित जीवन जीबाक क्षमता तथा अवसर शामिल छै। सांस्कृतिक उन्मुक्तताक उपलब्धता मानव विकासक अनिवार्य पक्ष छै आ एहि लेल सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक अवसरक पार गेनाइ जरूरी, किए कि ई सभ अपने-आप मे सांस्कृतिक उन्मुक्तताक गारंटी नहि भ सकैत अछि। दोसर, एहि बीच में हालाँकि, संस्कृति आ सभ्यता पर काफी चर्चा भेल अछि तथमपि सांस्कृतिक उन्मुक्तता चर्चाक मुख्य बिंदु नहि बनि सकल आ सांस्कृतिक संरक्षण पर बेशी जोर रहलैक। मानव विकासक दृष्टिकोण, सांस्कृतिक परिक्षेत्र मे मानव विकासक महत्त्व के बुझैत अछि। एकर बदला मे, चलैत आबि रहल युक्तिहीन परंपरा पर जोर देनाइ, सभ्यताक दुर्निवार संघातक चेतावनी पर चर्चा मे जोर रहल अछि जखन कि मानव विकासक परिप्रेक्ष्य सांस्कृतिक परिक्षेत्र मे स्वतंत्रताक महत्त्व के रेखांकित करैत अछि जाहि स लोक सांस्कृतिक बचाव आ प्रसारक आनंद ल' सकए। महत्त्वपूर्ण मुद्दा पारंपरिक संस्कृतिक वैशिष्ट्यक संरक्षण नहि सासंकृतिक विकल्प आ स्वतंत्रताक उपलब्धता अछि। तेसर, सांस्कृतिक उन्मुक्तताक महत्त्व मात्र सांस्कृतिक परिक्षेत्र मे नहि अछि बल्कि एकर संबंध सामाजिक, राजनीतिक आ आर्थिक परिक्षेत्रक सफलता विफलता स सेहो प्रगाढ़ छै। मानव जीवनक विभिन्न आयाम दृढ़तापूर्वक अंतर्संबंधित अछि। एते तक कि, गरीबी, जे एक तरहक आर्थिक अवधारणा थिक, ओकरो सांस्कृतिक संदर्भ के बिना नहि बूझल जा सकैत अछि। वस्तुतः एडमस्मिथ, जिनकर काज मानव विकास के प्रासंगिक बनौलक अछि हुनकर ई मानब छैन जे सांस्कृतिक अपवंचन आ आर्थिक गरीबी मे बहुत नजदीकी संबंध छैक।'1

सांस्कृतिक उन्मुक्तता आ सांस्कृतिक अपवंचन, एकरा सांस्कृतिक बहिष्करण (Cultural Exclusion) सेहो बूझल जा सकैत अछि, स गप्प शुरू कएल जा सकैत अछि। सांस्कृतिक उनमुक्तता सांस्कृतिक संरक्षण सँ सर्वथा भिन्न छैक। रोजी-रोटी आ जीवनक अन्य प्रसंगक मादे मनुष्य भिन्न सांस्कृतिक वातावरण में एनाइ-गेनाइक लेल बाध्य अछि। जाहि समाजमें जाइ ओकर सांस्कृतिक परंपराकें सम्मान केनाइ अपनेनाइ स्वाभाविक। अवधीक प्रसिद्ध कवि तुलसीदास कहि गेल छैथ -- जहाँ बसइ सो सुंदर देसू ! सुंदर देसू ठीक मुदा ओहू ठाम इएह बांछनीय जे अपन सांस्कृतिक पहचान के मिटा देबाक बुड़िबकै स बचबाक चाही। सांस्कृतिक उन्मुक्तताक सवाल असल में सांस्कृतिक परंपरा आ प्रसंगक चयनक थिक। आ हम त' कहब जे चयन स बेशी ई अपन परंपरा आ सांस्कृतिक प्रसंगकें अन्य सांस्कृतिक प्रवाहक संग सम्मिलनीक वा सम्मिश्रणक थिक। विस्तार स अन्यत्र, अखन त' एक टा उदाहरण। आइ हमरा सांस्कृतिक जीवन मे खाली अंगरेजी, हिंदी सन पैघ भाषाक माध्यम स आबि रहल सांस्कृतिक उपादनक मात्रा नञ बढ़ि रहल अछि बरन पंजाबी, भोजपुरी आदिक आमद भ' रहल अछि। ई त' खुशीक गप्प एकर स्वागत करबाक चाही, चिंता तखन बढ़ि जाइत अछि जखन मैथिल संस्कृतिक उपादनक प्रवाहकें स्थगित देखैत छी। खाली मैथिल संस्कृतिक उपादनक प्रवाहक ई स्थिति नञ, बांग्ला, अवधी, ब्रभाषा आदि सनक पैघ संस्कृतिक स्रोतक स्थिति सेहो बहुत नीक नञ कहल जा सकैत अछि। आर-त-आर कहू त' असगर कोळावळी कतेक बाजार पीटलक? आखिर की बात छलैक जे सदैव ब्रजनारी के संबोधित गीतक प्रवाह ब्रज क्षेत्र मे नहि भ' पूबे दिस भेल? कीछ त' कारण हेतै! हमरा ई सवाल बहुत हरान करैत अछि, मुदा अखनि ओम्हर नञ। अखनि त' सांस्कृतिक उन्मुक्तताक सवाल असल में सांस्कृतिक उपद्रव सं बचाव आ सांस्कृतिक परंपरा आ प्रसंगक चयनक सवाल थिक। आ हम त' कहब जे चयन स बेशी ई अपन परंपरा आ सांस्कृतिक प्रसंगकें अन्य सांस्कृतिक प्रवाहक संग सम्मिलनीक वा सम्मिश्रणक थिक। एतबे जे, हमरा सबक मोनमे सांस्कृतिक उन्मुक्तताक सवालक मादे मैथिल परंपरा आ सांस्कृतिक प्रसंगकें अन्य सांस्कृतिक प्रवाहक संग सम्मिलनीक वा सम्मिश्रणक अविरुद्ध स्थिति होएबाक चाही।

मैथिल संस्कृति बहुत समृद्ध अछि। मैथिली साहित्यक समृद्धि पर गाहे-बगाहे चर्चा होइत रहैत अछि। एडमस्मिथ कहने छथि जे गरीबी आ सांस्कृतिक अपवंचन मे करीबी संबंध छैक त ओकरा अहू रूपे बूझल जा सकैत अछि जे आइ संस्कृतियो आर्थिक समृद्धिक एकटा औजार अछि। कहबाक जरूरत नञ जे विश्व आर्थिकीक एकटा पैघ अंश संस्कृतिक उपादान स बनैत अछि। ई त' बुझना जाइत अछि जे संस्कृति आ आर्थिकी में नजदीकी संबंध छैक त' की एहेन भ' सकैत अछि जे सांस्कृतिक रूप सँ समृद्ध समुदाय आर्थिक रूप सँ दरिद्र हो? ज' एहेन छै त' हमरा जनैत सांस्कृतिक संभ्रम (Cultural Illusion) सांस्कृतिक प्रज्ञा (Cultural Competence) के गछारने अछि आ ताञ कतौ अबूझ गलती भ' रहल अछि। या त' सांस्कृतिक समृद्धिकें बढ़ा-चढ़ाक मूल्यांकित कएल जा रहल अछि या आर्थिक दरिद्रताकें बढ़ा-चढ़ाक सामने राखल जा रहल अछि वा दुनू गप्प भ' सकैत अछि। हम कहब जे मैथिलक संदर्भ में दुनू गप्प भ' रहल अछि। ताञ कने सावधान रहबाक जरूरत अछि। पुरना समय में मैथिल संस्कृति बहुत समृद्ध छल जेकर स्मृति हमरा खिहारि रहल अछि आ आर्थिक रूपे हम ओतेक दरिद्र नहि छी जेते हम अपनाकें बुझि रहल छी। स्मृति खिहारिक संप्रतिकें गछारि लिए' ई एकटा भिन्न स्थिति आ स्मृतिक धरोहरि स प्राण-रस ल' संप्रति प्राणवंत बनए ई सर्वथा भिन्न स्थिति। ई त' स्पष्टे जे पहिल पछुआ दैत छै त' दोसर अगुआ दैत छै। ताञ, पहिल स दोसर स्थिति दिस बढ़नाइ चुनौती ! एहि चुनौतीक मादे मैथिली साहित्यक महत्त्वकें अकानब मैथिली आलोचनाक एकटा जरूरी कार्यभार। आलोचनाक दोसर जरूरी कार्यभारक ठिकिएबाक क्रमे आगू बढ़वा स पहिने देखनाइ उचित जे मैथिली साहित्यक वर्त्तमान स्थिति केहेन अछि ! खासक मैथिली कविता आ मैथिली आलोचनाक परिदृश्य! बहुत आसान उपाय अछि, एक वाक्य मे कहि देल जाए जे अति उत्तम ! महो-महो ! अहाँ सबके नीक लागत, साहित्यकार संतुष्ट हेता, हमरो मन प्रसन्न हएत। मुदा, ई एहेन समय अछि जे हमरा सभकें आसान रास्ता के छोड़ि कने कठिन रास्ता पर चल पड़त। सबके नीक नहियो लागि सकैत अछि, साहित्यकारो सब असंतुष्ट भ' सकैत छैथ, अपनो मोन दुखी भ' जाएत। तैयो, हँ तैयो ई खतरा उठबैए पड़त। असगरे ई खतरा नहि उठाएल जा सकैत अछि। हमरा सबके ई खतरा मिलक उठाब लेल तैयार रहबाक चाही। त चलू, अपना दिश स किछ कहबाक पहिने मैथिलीक प्रसिद्ध साहित्यकार गंगेश गुंजन जी स बूझि लैत छी जे मैथिली साहित्यक वर्त्तमान स्थिति केहेन छैक। गंगेश गुंजनक शब्द मे,'मैथिलीक वर्त्तमान, सपाट, स्थूल आ स्पंदनहीन काव्यालोचन, नव काव्यानुभवक युग सापेक्ष भार नहि उठा पाबि रहल अछि। ई समय तेहन अछि जे आइ, समीक्षक भूमिका सेहो सर्जकक सहरूपी भ' गेल अछि। आचार्य नलिन विलोचन शर्मा समीक्षाकें रचनाक शेषांश कहने छथि। मैथिली के आइ ई परिवेश चाही। एखन त मैथिली कविता वन कुसुम जकां, अपन अस्तित्व रक्षा आ विकास में स्वयं संघर्षरत अछि।'2 आब चुनौती ई जे, सपाट, स्थूल आ स्पंदनहीन काव्यालोचनके गंभीर, सूक्ष्म आ स्पंदित कोना कएल जाए जाहि स मैथिली कविता के दिशा भेटैक। 

पहिने साफ क' दी जे कवि, जे कोनो भाषा के कवि बहुत संवेदनशील होइत छैथ आ कविता बहुत जटिल मानवीय अभिव्यक्ति ओकरा रचनाक बाहर स प्रत्यक्षतः निदेशित नहि कएल जा सकैत अछि आ नञ त' हम ई गलती कर जा रहल छी। हँ, ई मनोरथ जरूर जे आलोचना के मैथिली कविता क संगी-सहचरी बना सकी। मैथिली कविता में गति त' छै मुदा गतिक सापेक्षता मे दिशा नञ छै। दिशाक अभाव मैथिली कविताके एकहि वृत्त पर घुमा दैत छैक। कहबाक प्रयोजन नञ जे, वास्तविक या अभिकल्पित गंतव्यक बोध गति के दिशा दैत छैक। मैथिली कविताक वास्तविक किंबा अभिकल्पित गंतव्य की भ' सकैत अछि से ठिकियाब पड़त। एहि मे आलोचनाक किछ भूमिका भ' छै की ! अहाँ मे स बहुतौ जनैत हएब मुदा, प्रासंगिक रूप स संकेत केनाइ जरूरी जे काव्य-शास्त्र आ काव्योलोचन मे अंतर होइत छैक।

सभ्यताक विकास क्रम मे निहित सत्ता-विमर्शक कारणे संस्कृति बहुत तरहक विपर्यय देखने अछि। मातृ-सत्तात्मक समाज पितृ-सत्तात्मक समाज मे बदलि गेल। मनुष्य पर मशीन का वर्चस्व बढ़ल। लोक वेदक पाछू-पाछू चल लागल। शास्त्र आ सत्ता का जन्म संगे होइत छै। जेना-जेना साहित्य लोक-विमर्श स बाहर आ सत्ता-विमर्शक अंगीभूत होइत जाइत अछि साहित्य पर शास्त्रीयताक दबाव बढ़ैत जाइत छैक। साहित्य पर शास्त्रीयता क गहन प्रभाव आ दबावक सुदीर्घ आ समृद्ध परंपरा छै। एहि प्रभाव आ दबाव स बाहर निकलबाक क्रम मे आलोचनाक जरूरत के बुझबाक चाही। मतलब साफ जे `काव्य-शास्त्र' आ `काव्यालोचन' में मूलभूत गुणात्मक अंतर छै। साहित्यक विभिन्न पक्ष के संदर्भ में काव्य-शास्त्रक अनुल्लंघनीय सीमा होइत छै। फेर कहब जे शास्त्र में सत्ता अभिमुख होइत जेबाक तीब्र प्रवणता अंतर्निहित होइत छै। एहि प्रवणताक कारण शास्त्रक हृदय में लोक-संवेदनाक लेल समुचित सम्मानक कोनो खास जगह नहि रहैत छैक। ई बात खाली साहित्य-शास्त्रेक संदर्भ मे नहि बरन धर्म-शास्त्र, अर्थ-शास्त्र आ समाज-शास्त्रोक संग सेहो होइत छै। शास्त्र प्रतिमान गढ़ैत अछि आर आलोचना प्रतिपथ तकैत अछि। शास्त्र और लोकक बीचक द्वंद्व के गहियाक देखल जाए त ई बात सहजे बुझबा मे आबि सकैत अछि जे एहि क्रममे युगांतरकारी सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक विवर्त्तनक जन्म होइत छैक आ युग-संक्रमणक अंतर्विरोधक दबाव भाषा के प्रति साहित्यकारक बेबहार के बदलि दैत अछि। अकारण नहि संस्कृतक अगाध पंडित के देसिल बयना मीठ लाग लगैत छैन! अपन दायित्व-पालनक बास्ते आलोचनाके सहयोजी आ गतिशील होब पड़ैत छै। विज्ञान आ तकनीकक नवोन्मेषक ई समय सांस्कृतिक प्रक्रियाक नवोन्मेषक समय सेहो छैक। मैथिली साहित्यके आइ सहयोजी आ गतिशील आलोचना के जरूरत छै, विचारशील आ दिशा-संधानी आलोचनाक जरूरत छै। सावधानी ई जे, आजुक समय विचार क दुनिया मे घोंघाउज चलि रहल छैक। कोनो विचार आँखि मुनिक अपना लेबामे खतरा सब समय रहैत छै, अखैन त आर बेशी। ओना त आँखिगर लोक कहियो आँखि मुनिक कोनो प्रस्ताव के स्वीकार नहि करैत अछि। मुदा आँखि पर खतरो त' शुरूए स रहल छै। जखन श्रीकृष्ण कोनो तरहे अर्जुनके नहि प्रबोधि सकलाह त हुनकर आँखिये बदलि देलखिन। ई नहि कहखिन जे हम अहाँक आँखि छीनै छी, कहलखिन जे हम अहाँ के दिव्य आँखि दैत छी -- 'न तु मां शक्यसे द्रष्टुमननैव स्वचक्षुषा। दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमेश्वरम।'[3] ई त' ओहि समय भेल रहै ! अजुका कठिन समयमे विचारशील आ दिशा-संधानी आलोचनात्मक दृष्टि के सक्रिय रखनाइ की एतेक सहज काज छी ! ई काज सहज भ' सकैत अछि यदि सहज-सुमति के हम सब मिलिक साधि सकी। हमरा जनैत, एहि समय मे मैथिली आलोचनाक इएह भूमिका भ' सकैत अछि। 

त केहेन कठिन समय अछि, की कहैत छैथ पंकज पराशर, 'एहि चतुर समय मे/ जखन कि भविष्यक नक्शा बनाओल जा रहल हो/ भूमंडलीकरण आ उदारीकरणक नेओं पर/ लालटेमक मद्धिम रोशनी मे तल्लीनता स पढ़ैत/ मनोहर पोथी/ हमर भागिन हमरा भरि दैए घोर संत्रास/ व्यर्थता बोध सँ'4। ई संत्रास, ई व्यर्थता बोध साधारण नञ किएक त' अतीतक गछारक बीच में फँसल लालटेमक मद्धिम रोशनी मे भविष्यक जे नक्शा स्पष्ट भ' रहल अछि ओकर अंतर्निहित संकेत जे भूमंडलीकरण आ उदारीकरणक पोथी स संस्कृतिक मनोहर पोथीक पृथकता स एहि संत्रास आ एहि व्यर्थता बोधक नाभिनाल संबंध छैक। एकटा फूल खिलाइ छै तो ओकर पाछू प्रकृतिक कतेको ज्ञात-अज्ञात प्रक्रिया एकहि संगे सक्रिय रहैत छैक ! आ मनुखक जन्मक पाछू त बुझले जा सकैत अछि प्रकृतिक संगहि संस्कृतियोक कतेको ज्ञात-अज्ञात प्रक्रिया सक्रिय रहैत छैक! मुदा एक समय जेना ई प्रक्रिया विच्छिन्न हुअ लगैत छै, तैयो कि एतेक सहजहि ! कहैत छैथ वियोगी जी, 'बहुत मनसुआसँ देने छल हेती जन्म/ कतेको रास नियार-भास/ कतेको कतेक आस-मनोरथ/ घुमड़ैत रहैत छल हेतनि हुनका चतुर्दिक/  ओहि नव मासमे, जा हम हुनका गर्भ मे रही। /..../ कोना हम मानब जे माइ हमर मरि गेली/ आ छोड़ि गेली संग!// जा हम जीबैत छी/ कोन उपायें छोड़ी ओ हमर संग?'5 मिथिलावासी त' सब दिन स घर छोड़ि बहराएबाक परिस्थिति स गुजरैत रहल छथि। कतेक बेर त' घर छोड़ि बहरेलाक बादो ओ सांस्कृतिक रूपे घरे मे रहैत रहलाह आ अनेक बेर घर छोड़ि घुड़मैया मे लागि गेला मुदा घर सं बहराएबाक गप्प केदार कानन लधैत छथि त' कने गंभीर गप्प कहैत छैथ, घर सं बहरेनाइ किएक एते जरूरी, 'मुदा कतेक जरूरी अछि/ बहराएब घर सं/ अपन एकांतक जंगलसँ/ प्राण लेल/ जीवन लेल/ कतेक बेगरता अछि/ हमरा बहरएबाक'6। जरूरी अछि, बहराएब घर सं मुदा डर ई जे 'एहिना छुटैत अछि राग-रंग/ गीत-लय-ताल  प्रेम, जे नहि क' सकलहुँ एखन धरि/ सभसँ बेसी/ सभसँ बेसी मोन लागल रहत/ तकरा पर'[7] । जरूरी अछि, बहराएब घर सं मुदा राग-रंग, गीत-ताल-लय आ प्रेम के छूटि जेबाक डर! ओना त कोनो समुदायक सदस्यक मोन मे एहि जरूरियात आ एहि छूटि जेबाक डर सं उत्पन्न द्वंद्व स्वाभाविक मुदा मैथिलक गृहबोधक निजत्व एहि द्वंद्वकें एक भिन्न तरहक वैशिष्ट्य द' दैत छै! एहि खास तरहक द्वंद्व के रहितौ घर स बहरेनाइ जरूरी एहु लेल जे, 'बन्न कोठलीमे घुटन अछि/ चीत्कार अछि/ उत्तेजना अछि/ मुदा अखनो बचल थोड़े आस अछि/ आ बन्न कोठलीमे/ अखनो शेष अछि प्राण-रस  शेष अछि/ खिड़की खोलि लेबाक विश्वास।'8 सुस्मिता पाठकक खिड़की खोलि लेबाक साहस असल मे मैथिलक सांस्कृतिक साहसो थिक। ज एकरा संगहि मैथिल महिलाक विश्वासक संगे एकरा जोड़िक बुझबाक कोशिश करी त आइ दुनियाक महिला खिड़की सं आकाशकें देखैक सीमाकें तोड़ि कम-स-कम अंगनाक खुजल जमीन सं आकाश के देखैक विश्वासी छैथ। मुदा सुस्मिता खिड़की खोलि लेबाक विश्वासक शेष रहबाक गप्प कहैत छैथ छथि त ई मैथिल जीवन एकटा विश्वसनीय प्रसंग बनि जाइत अछि। किएक त' प्राण-रसकें सोखि लेबाक आ विश्वासकें तोड़ि देबाक स्थिति चाहे जेते बढ़ि गेल हो, कोठली गाहे जते निमुन्न हो मुदा भरोसकें बचा रखवाक मनुखक क्षमता अजेय होइत अछि। नारीक सामाजिक पारिवारिक विशिष्ट संदर्भ मे ज्योत्सना चन्द्रमक मोन ठीके कहैत छनि जे 'नारीके मानलनि सभ/ वशीकरणक प्रतीक/ केहेन विडंबना! केहन अछि ई त्रासदी/ इएह नारी/ रहलि सदा वशीभूत'9। नारीक वशीभूत रहबाक ई स्वर एहेन विडंबनाकें असल मे मनुख जातिक विडंबनाक रूप मे पढ़बाक चाही। आ ई कम पैघ गप्प अछि जे एहि विडंबनाक रहितौ कुमार शैलेन्द्र ओकर सपना मे देखैत जे 'ओकर आँखि मे फुलाइ छै सपना/ बंशीवट पलाश सन/ साँझक पनिसोखा सन/ कखनो गामक भोर सन'10। घर स मनुखक संबंध दुतरफा होइत छैक। मनुख घर मे रहैत अछि। ई जतबा सत्त ततबे इहो सत्त जे घर मनुखक मोन मे रहैत छैक। जखन मनुख घर सं बाहर होइत अछि तखन मनुखक मोन मे बसल घर बेशी जाग्रत भ' जाइत छै आ ओकरा जरूरी बुझाइत छै, 'पोचाड़ा करेनाइ / आ कि ढौरनाइ घर कें / वास्तव में/ ढौरनाइ भ' जायत छैक विचार कें... / घरक कोन-कोनक नव रूप/ मोन कें दैछ नव स्वरूप !'11 आ ताञ असल मे पोचाड़ा करेनाइ आ कि ढौरनाइ घर कें, वास्तव में, ढौरनाइ भ' जायत छैक विचार कें। की ई कहैक आवश्यकता जे मैथिल संस्कृतिक विशिष्ट संज्ञामे घर मात्र वास्तु नञ विचार सेहो होइत अछि। मैथिल जतबा घर मे रहैत अछि ओहि सं बेशी घर ओकरा मे रहैत छै। घरक विचार आ विचारक घरमे मैथिलक आवाजाही मैथिल मोनक अपन वैशिष्ट्य छैक। एहि वैशिष्ट्य मे नव्यताक आग्रह ओकर प्राण छैक। सांस्कृतिक उन्मुक्तताक संबंध सांस्कृतिक विकल्पक चयन सं जुड़ल अछि आ विकल्पक अभाव मैथिलक जीवनमे अवसरक संकुचन सं जनमैत छैक। अवसरक संकुचन मिथिलाक भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक, ऐतिहासिक आ किछ हद तक सांस्कृतिक संरचनाक मूल वक्तव्य बनि विकल्पक न्यूनताक सूचना अछि, ताञ पंकज पराशरक एहि वेदनाके नजरि गड़ाक बूझ पड़त कि 'विकल्प हमरा लग कम अछि/ आ इतिहास आँखि गुराड़ि रहल अछि/ मुदा यात्रा स्थगनक कोनोटा सुझाव/ आब निर्थक छि'12

यात्रा पर बहरेनाइ बहुत जरूरी! कम-स-कम भौगोलिक स्थिति आ सामाजिक समर क संकेत करैत सारंग कुमारक पीड़ा बहुत किछ ध्वनित क दैत अछि, 'नहि अछि समुद्र/ नहि अछि पहाड़/ नहि अछि हमरा लग कोनो महानगर/ मुदा ओहू सं पैघ/ सोझाँ मे अछि ठाढ़ एक टा महासमर !'13 केहेन अछि ई सामाजिक समर! कहैत छैथ रमेश, 'देसी सरकार, विदेसी बेवहार। रन्ना पीठ पर, रन्नू सरदार। लासमे रस्सा कोसी सरकार। बचल-खुचल दाना, फलां गिरोह। फलां गिरोह, माइ चिल्लां गिरोह। पासमान-पहलमान, गिरोहे-गिरोह। बिहार सरकार, राइफलवला घोड़ा/ सरकारे-सरकार, सरकारे-सरकार। जोर लगा क' हइसा! सरकार के घीचू हइसा! परशासन घीचू हइसा! लोककें घीचू हइसा। चन्नर-भन्नर हइसा! चन्दायण आइ. बी. हइसा! वीरपुर आइ. बी. हाइसा! दिवारी-थान मे दूध आ लावा, बीयर-बारमे हइसा!'14 रमेश सांस्कृतिक आंतरिक गतिमयताक (Internal Dynamics) राग-रंग, गीत-ताल-लय आ प्रेमक संगहिं प्रशासनिक विद्रूपताके सामने रखैत सामाजिक समर के जाहि तरहें कविता मे अनैत छैथ ओ अवसरक संकुचनक सामाजिक समरक गाथा बनि जाइत अछि। एहि सामाजिक समर के पार पबै लेल चाही आमू-चूल सामाजिक परिवर्त्तन! की, क्रांति! मुदा अनका कपार पर चढ़िक क्रांति नञ भ सकैत अछि ताञ देवशंकर नवीनक चेताबैत छैथ 'अहाँक महफा पर कोना औतीह हमर मीता/ लेनिनग्रादसं मोहनपुर'15। संकेत साफ जं मीता हमर आ मोहनपुर हमर त महफो हमरे हेबाक चाही। नञ खाली महफा कनहो हमरे रहबाक चाही! अखैन त' मीता रूसल छैथ आ मोहनपुर दूर अछि ताञ विनय भूषणक शब्द मे बाबाक समाद मोन राखि। की कहने छलाह बाबा! 'बाबा कहने छलाह/ नदी माए थिकी/ जुनि करियह एकर पानिकेँ मलीन।/ बाबा कहने छलाह/ आकाशकें राखियह निर्मल'16। पानि नदी केँ होए कि आँखिक, पानिकेँ मलीन होम सं बचेनाइ आ कि आकाशकें रखनाइ निर्मल त' कठिन अछिए संगहिं शुद्ध पर्यावरणक चिंता स बहुत आगूक सांस्कृतिक चेतना अछि। नञ मात्र सांस्कृतिक चेतना एहि मादे सांस्कृतिक प्रतिज्ञा आ प्रेरणा सेहो!

दशक मे बान्हिक कविताकें बुझनाइ आलोचनाक अपन परिसरगत विवशता भ' सकैत अछि मुदा एकरा संवेदनाक सीमा मानि लेनाइ उचित बेबहार नञ। सांस्कृतिक उन्मुक्तताक उपलब्धता मानव विकासक अनिवार्य पक्ष छै आ कविता सांस्कृतिक उन्मुक्तताक आकांक्षाक पहिल अभिव्यक्ति; मैथिली कविताकें एहू तरहे देखबाक हम आग्रही। 

हमर अपन बहुत रास कथ्य-अकथ्य व्यक्तिगत सीमा अछि, जे कहब से थोर। एहि लेल हम क्षमायाची। नवम दशकक मैथिली कविताक पाट एतबे नञ। मुदा हम इत्यादि मे नामावली देबाक स हरदम बचैत रहल छी। हमरा अंदाज अछि, डरो जे बहुत किछ महत्त्वपूर्ण छूटि गेल मुदा ई हमर सीमा मैथिली कविताक नञ। फेर कोनो अन्य अवसर पर ओकरा समेटि सकब त हमरो नीक लागत।

एहि कार्यक्रम मे शामिल करबाक लेल मिथिला विकास परिषद, कोलकाताक प्रति आभार




1 मानव विकास रिपोर्ट 2004 : सांस्कृतिक उन्मुक्तता आ मानव विकास (CULTURAL LIBERTY AND HUMAN DEVELOPMENT) 
2 गंगेश गुंजन : भूमिका : मैथिली कविता संचयन: नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया 2005 
3 गीता, अध्याय - 18 (66) 
4 पंकज पराशरः मनोहर पोथीः समय केँ अकानैतः किसुन संकल्प लोक, सुपौल, बिहार 2004 
5 तारानन्द वियोगी: कोन उपायें छोड़ती माइ हमर संग: मैथिली कविता संचयन: नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया 
6 केदार कानन : हमरे लेल तँ: मैथिली कविता संचयन: नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया 2005 
7 केदार कानन : एक दिन एहिना : मैथिली कविता संचयन: नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया 2005 
8 सुस्मिता पाठक : शेष अछि प्राण-रस : मैथिली कविता संचयन: नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया 2005 
9 ज्योत्सना चन्द्रम : मोनः किछु कविता : मैथिली कविता संचयन: नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया 2005 
10 कुमार शैलेन्द्र : ओकर सपना : अंतिका, जुलाइ-सितंबर 2002 
11 कुमार मनीष अरविन्द : पोचाड़ा मे पैसि क” कविता सँ सम्पर्क : मिथिला दर्शन, मार्च-अप्रैल 2010 
12 पंकज पराशरः हे हमर पिता! : समय केँ अकानैतः किसुन संकल्प लोक, सुपौल, बिहार 2004 
13 सारंग कुमार : हम जे चाहै छी :अंतिका, जनवरी-मार्च, 2001 
14 रमेश : कोसी-भगइत : मैथिली कविता संचयन: नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया 2005 
15  देवशंकर नवीन : काल चक्र : मैथिली कविता संचयन: नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया 2005 
16 विनय भूषणः बाबा कहने छलाहः घर-बाहर, जनवरी-मार्च 2011

उच्चवाचिकता क संभावना स पूर्ण आ लोक बेबहारी

कुल जमा ई जे, मैथिली मातृभाषा अछि। हम ई नीक जकाँ बुझै छिये जे मातृभाषा भेला मात्र सँ नञ त कोनो भाषिक दक्षता भेटि जाइत छैक ने प्रामाणिकता। तखन इहो जे, मातृभाषा हेबा सँ ओहि भाषाक नैसर्गिक भंगिमा आ लोक व्यवहार स परिचय जरूर रहै छै। भाषा क मूल रूप बजनाइ, कहि सकैत छी मौखिक होइत छै। मौखिक गप्प के लिखित रूप में दर्ज करबाक क्रम में भाषा क मानक स्वरूप बनैत चलै छै। कने आर फरिछा क ई जे भाषा क मानक स्वरूप जड़ आ अपरिवर्त्तनीय नञ बरंचि, गतिमान आ परिवर्त्तनशील होइत छै ▬▬ जै भाषा क मानक स्वरूप जड़ आ अपरिवर्त्तनीय भ जाइत छैक ओ बहुत झटकिचाल में लोक व्यवहार स बाहर भ जाइ लेल बाध्य भ जाइत अछि। जदपि, लोक व्यवहार स बाहर भेल एहन भाषा लिखित रूप में उपलब्ध रहैत छैक, उदाहरण संस्कृत। मैथिली क प्रामाणिक आ मानक रूप क अवगैत हमरा, नञ ताञ ई भ सकैत छै जे हम भाषा क मादे गतिमानता आ परिवर्त्तनशीलता पर बेशी जोर द रहल होइ। जे होइ हम ई कहै छी जे, हमरा मानक वा प्रतिष्ठित मैथिली नञ अबैत अछि। सत पूछी त हमरा जीवनक कोनो क्षेत्र क किछुओ मानक वा प्रतिष्ठित नञ अनबैत अछि। विद्वान सभक आशंकित कटाक्ष के बुझबा बा प्रतिकारक बोध हमरा नञ बर्दाश्त करबाक सहास अछि। कटाक्षक कटौंछ में अपना के औझरेने बिना सीख लेबाक उहि अछि ▬▬ जेना मोबाइल आ कंप्यूटर पर काज करबाक मानक जानकारी क बिना हम अपन काज क लै छी, इहो काज क लेब। असगरे! नञ-नञ, मोबाइल आ कंप्यूटरो परक काज असगरे कहाँ होइत छै।



नबतूरीया सब स हमरा बेशी आशा। नवतूरीया में सिखबाक आ व्यवहारक तत्परता बेशी होइत छैन। आवेग सेहो। हुनके संगे हमहुँ तत्परता आ वेग स अपना के जोड़ि लेब। मुदा नबतूरीया त जीवन-यापन, यौबन-जीबन क भाँति-भाँतिक समस्या अभाव सँ जूझि रहल छैथ। मैथिली में खाली किछ साहित्य, किछ लोक गीत, पबनितहारे नाटक बाकी सब! तैयो हमरा बूझल अछि जे कचौंह आम क अम्मट नञ होइ छै आ गोपी आम क कुच्चा नञ होइ छै। अम्मट आ कुच्चा दूनू जरूरी त सत्ते मुदा हमरा त अखैन भाँस दिय... 

कान में कहै छी, एतेक गहन स्वर-संयुक्ति मैथिली क जीवंत आ अनिवार्य गतिशील, अ-मानक स्वरूप स समृद्ध करैत छै। आ ताञ मैथिली आत्यंतिक रूपे उच्चवाचिकता क संभावना स पूर्ण आ लोक बेबहारी भाषा अछि।



शनिवार, 9 अगस्त 2014

एहि इजोत संग, हो केहन बेबहार


अपने बनल छी इजोत'क बारीक यौ सरकार
घर-बाहर, सबतरि रस्ता हमर, अछि अन्हार
साँझ-प्रात दरवज्जा पर कानैथ, स्वयं दिवाकर
ठोहि पारि'क माए जे कानय, बेटा केहन लबार
देव-पितर सब रूसल, अछि सबहिक बंद केबार
नञ यौ अनका नञ, अपने के, सुनबै छी दुत्कार
जेते झपै छी होइत जाइत छी, बेसी आर उघार
जुनि बूझब हम अनका दै छी कोनो छूछ विचार
टूटल टाट, ओलती अछि टूटल, साबूत नञ चार
लबरी-फुसियाही पर, हँ भरि गाम पड़य हकार
जोतला खेत आ, समा-चकेवा आब अनचिन्हार
बारीक कहू, एहि इजोत संग हो केहन बेबहार
अपने बनि इजोत'क बारीक, करै छी होहो-कार
आ घर-बाहर, सबतरि रस्ता हमर अछि अन्हार
बारीक कहू, एहि इजोत संग, हो केहन, बेबहार

सूखल नयन नदी हियमे मरुभूमिक घोर बिहाड़ि

(प्रगतिशीलता आ किरणजी/ प्रतिमान, पटना'क आयोजन दिनांक 25-26 नवंबर 2006 मे पढ़ल आलेख)

प्रगतिशीलता: किछु सामान्य प्रसंग

सभ्यताक मूल्यबोध
सभ्यता मानव जीवनक निरंतर विकसनशील आधारशिला होइ छै। सभ्यताक विकास सामाजिक विकासक रूप मे प्रकट होइ छै। सामाजिक विकासक क्रम मे संबंध तंतु बदलैत रहै छै। समाजक संघटन में अनुस्यूत संबंध-तंतु मे भ रहल बदलाव के संभव करवा मे सांस्कृतिक आर दार्शनिक मूल्यक रूप मे प्रगतिशीलताक अपन महत्त्व छै। सामान्य रूप सँ कहल जा सकैत अछि जे कोनो समाज में प्रगतिगामी एवं प्रतिगामी, दुनू प्रवृत्ति सक्रिय रहै छै। सभ्यताक इतिहास एहि बातक साक्षी अछि जे सभ्यता विकासक प्रत्येक चरण मे प्रगतिशील शक्ति के, पूर्ण विजय त नहिं, मुदा सक्षम बढ़त अवश्ये हासिल होइत रहल छै। मानि लेबा में कोनो आपैत नहिं जे पारंपरिक रूप सँ ई दुनू प्रवृत्ति अपन सक्रियताक अधिकांश मे सचेतन नहिं होइ छै। सामाजिक सचेतनताक सही दिशा मे संप्रसारक लेल प्रगतिशील प्रवृत्तिक लोक सक्रिय रहैत छैथ। जत सँ एहि मे सचेतनता क प्रवेश होइ छै आ जाहि मात्रा मे होइ छै, ओतहिं सँ आ ओहि अनुपात मे द्वंद्व सामाजिक चिंतनक फरीक बनै छै। एहि द्वंद्वक तीव्रताक अनुपाते प्रगतिशीलता क तत्त्व एवं अंतर्वस्तु मे गुणात्मक बदलाव लक्षित हुअ लगै छै। ई बदलाव सामाजिक बदलावक रूप मे चिन्हार होइ छै।

चेतन आ अचेतनक आनुपातिक क्रम चाहे जे होइ, समाज बदलावक प्रक्रिया हरदम जारी रहै छै। समाज बदलावक एहि प्रक्रिया मे राजनीति प्रत्यक्ष वा परोक्ष रूप सँ निश्चिते सक्रिय रहै छै। सामाजिक बदलावक रूप के चिन्हक ओकरा आकांक्षित रूप आ गति देनाइ मुख्यत: राजनीतिक प्रक्रिया होइ छै। ताञ, सामाजिक बदलाव आर्थात मानवीय संबंध आ सरोकार में सकरात्मक बदलावक मूल्य समुच्चयक रूप मे प्रगतिशीलताक राजनीतिक रूप के बुझनाइ जरूरी भ जाइ छै। राजनीति निरपेक्ष सांस्कृतिक स्वायत्तताक सवाल उदात्त एवं अपन भावना प्रधान उच्चाशय एवं तेजस्विताक संग बेर-बेर उपस्थित होइ छै। रोजी-रोटी समेत जीवनक समस्त आधारभूत प्रसंग मे स्वायत्तताक दर्शन कें स्थगित एवं राजनीतिक परिप्रेक्ष्य सँ नियमित होइत देखि सांस्कृतिक स्वायत्तताक सवाल आ तर्क स्वत: निस्तेज भ जाइ छै। स्वभावत: प्रगतिशीलताक राजनीतिक आयामकेँ अस्वीकारक धूर्त्तताकेँ एक दोसर तरहक राजनीतिक प्रसंगक रूप मे बूझल जा सकैत अछि। तात्पर्य ई जे वास्तव मे सांस्कृतिक प्रवाह, सामाजिक यथार्थ, संघर्ष आ स्वप्नक संश्लेष सँ राजनीति के सावधानीपूर्वक जोड़िक प्रगतिशीलताकेँ बुझनाइ जरूरी। संक्षेपे मे सही मुदा, ई साफ करैक दरकार बुझना जाइत अछि जे प्रगतिशीलता समाजक अन्य उद्यमशीलता एवं वास्तविकता के अन-अन्य एवं अविच्छेद्य रूपमे स्वीकार करै छै आ एकरा बीच मे अंत:सक्रिय अंतनिर्भरताक आधार एवं तत्त्व के पोसैत छै। समाज विकासक मूलाधारक नवोन्मेष के मुख्य रूप सँ सचेत राजनीति पुनर्संयोजित करैत अछि आ सचेत साहित्य एहि पुनर्संयोजनक सामाजिक स्वीकृति लेल समाजक मन मे नव जगह बनबैत अछि। प्रगतिशीलताक मूल आशयकेँ देशकालक राजनीति एवं संस्कृति सँ निरपेक्ष स्वायत्तता मे नहिं, बरन राजनीति आ संस्कृतिकक सापेक्ष अंतर्निर्भरता के स्वीकार कइएक हासिल कएल जा सकै छै।

समाज, स्वप्न, संघर्ष आ संघात
प्रत्येक समाजक विकास भिन्न ऐतिहासिक परिस्थति मे होइ छै। ऐतिहासिक परिस्थितिक भिन्नता प्रथमत: समाजक बाह्य यथार्थ के आ अंतत: किछु दूर तक ओकर आंतरिक चरित्रकेँ भिन्न-भिन्न स्वरूप प्रदान क दै छै। बाह्य यथार्थ आ आंतरिक चरित्रक भिन्नता कइएक बेर समाजक अपन वैशिष्ट्यक रूप मे स्वीकृति पबै छै। एहि वैशिष्ट्य मे समाजक अस्मिताक आधार बनवाक तीव्र प्रवणता होइ छै। अस्मिताक आधारक रूप मे स्वीकृति पाबिक ई वैशिष्ट्य कइएक बेर सामाजिक स्वप्नक हिस्सा बनि जाइ छै। एहि स्वप्न मे समाजक सब अवयवक लेल समुचित स्थानक अभाव सँ सामाजिक संघर्ष आ संघात तकक वातावरण बनि जाइ छै। अंतरविभंजित समाज मे सामाजिक संघर्ष आ संघातक वातावरण अपेक्षाकृत अधिक आसानी सँ बनि जाइ छै। सभ्यता संघर्ष आ संघातक ई प्रक्रिया समाजक बाह्य-भूमिक निषेघ त करिते छै सामाजिक अंत:करणमे एहेन अनिवार्य दुर्घर्ष संकोचन उत्पन्न करैत छै जे अंतत: `सामाजिक ब्लैक' होल के रूप मे प्रकट होइ छै। समाजक प्रगतिशील चेतना आ मूल्यबोधक अधिकांश एहि `सामाजिक ब्लैक होल' मे समाहित भ निरर्थक भ जाइ छै। ताञ, प्रगतिशील चेतना आ मूल्यबोध सभ्यताक आधारशिलाक संघाती रेखा (Fault Line) आ सामाजिक ब्लैक होलक खतरा के नीक जकाँ चिन्हैक कोशिश करै छै। अंत:करण केँ रणभूमि मे बदलि गेनाइ सँ पैघ दोसर कोनो दुर्घटना सामाजिक जीवनमे नहिं भ सकै छै! स्वभावत: प्रगतिशील मूल्यबोध अपन संघात-समंजन (Conflict Management) क आंतरिक शक्तिक आधार पर स्वप्न, संघर्ष आ संघातमे सामंजस्यक संधान करै छै। एहि संधानक क्रममे प्रगतिशीलता समाजक बाह्य-भूमि सँ निषेधक संबंधकेँ बदलि सहकारक संबंध विकसित करैत सामाजिक अंत:करणकेँ अंतर्बाधित रणभूमि सँ बदलि वास्तविक रूपेँ निर्बाध जनभूमि (Public Sphere) मे बदलवाक चेष्टा करै छै। रणभूमिकेँ जनभूमि मे बदलनाइ प्रगतिशीलताक प्राथमिक दायित्व होइ छै। ई गप्प दोसर जे शोषण पर आधारित समाज मे रणभूमिकेँ जनभूमि मे बदलबाक प्रक्रिया कइएक बेर दुनिर्वार रणप्रक्रियाक अनिवार्य रूप मे प्रकट होइ छै।

ध्यान देबाक कथा ई जे प्रत्येक समाजमे सामाजिक यथार्थ आ मूल्यबोधक भिन्नताक आधार पर प्रगतिशीलताक अंतर्वस्तुमे सेहो गुणात्मक अंतर होइ छै। हम ई विशेष रूप सँ ध्यान मे लाब चाहै छी जे व्यवहारत: मैथिल समाजक, आ ताञ मैथिली साहित्योक, प्रगतिशीलताक गुणात्मकता कोनो अन्य समाज आ साहित्यक प्रगतिशीलताक गुणात्मकता सँ तुलनीय त निश्चिते भ सकै छै मुदा कोनो हालतमे अन्य समाज आ साहित्यक प्रगतिशीलताक गुणात्मकता एकरा लेल अनिवार्य निकष नहिं भ सकै छै। दोहराक आ फरिछाक कह चाहै छी जे, अन्य समाज आ साहित्यक प्रगतिशीलताक गुणात्मकता मैथिल समाज आ मैथिली साहित्यक प्रगतिशीलताक गुणात्मकताक मान निर्धारणक निकष नहिं भ सकै छै। प्रगतिशील चिंता आ चेतना सँ संपन्न विद्वान लोकनि द्वारा अतीत मे एहि तरहक कएल आर बेर-बेर दोहराओल गेल गलती के बुझबाक आ ओहि सँ साग्रह बचबाक रास्ता तकबाक चाही। प्रगतिशीलताक मैथिल संस्करणक संधान एक तरहक सांस्कृतिक दायित्व अछि। ध्यानमे इहो रखनाइ जरूरी जे प्रगतिशीलतामे वैज्ञानिकताक तत्त्व सक्रिय रहै छै। ई वैज्ञानिक युग थिक। एहि बात के हम अधिक साफ-साफ बुझि सकै छी जे साहित्यमे वैज्ञानिकता आ वैज्ञानिक सिद्धांत निर्धारणक प्रक्रिया भौतिक विज्ञान सँ मौलिक रूपेँ भिन्न होइत छैक। हमरा ई कहबाक जोखिम उठाब दिअ जे आइ जीवन विज्ञान सँ खाली समृद्धे नहिं अछि अपितु वैज्ञानिक समृद्धि सँ शतश: आक्रांत सेहो अछि। हमरा मन मे बेर-बेर ई प्रश्न उठैत अछि जे सामाजिक जीवनक प्रत्येक क्षेत्रमे विज्ञानक संपूर्ण दखल किए हेबाक चाही ! शेष सृष्टि आ समतमूलक सामाजिकता सँ मानव संबंधक मधुरता एवं दृढ़ताक विकासमे जते दूर तक सहायक ओते दूर तक वैज्ञानिकता निश्चिते स्वीकार्य। मुदा जीवनक आनंद सब समय वैज्ञानिक मनोभाव सँ उपलब्ध नहियो भ सकै छै। ई बूझबा आ मानबा मे कोनो आइ भाँगठ नहिं होएबाक चाही जे वैज्ञानिक दृष्टि सँ कमला-बलान आन छैथ, साहित्यिक आ संस्कृतिक दृष्टि सँ आन छैथ!

साहित्यक अपन एकटा भिन्न विज्ञान होइत छैक। एहि वक्तव्यकेँ अहाँ सभक समक्ष रखैत हम नीक जकाँ बूझि रहल छी जे एहि संदर्भ मे बहुत रास एहनो प्रश्न उठि सकै छै जेकर त्वरित समाधान एहि सभामे संभव नहिं। हमरा विश्वास अछि जे कोनो सभाक सार्थकता प्रश्नक समाधान हासिल होएबा पर त निर्भर करिते छै, नव समाधानक माँग करैत हासिल होबवाला अनुत्तरित सन रहि गेल प्रश्नो पर सेहो कनेमने निर्भर करै छै। एहि संदर्भ मे एतबा आँकि रखनाइ जरूरी जे विज्ञानक सत्य अपना आपमे ब्रह्मांडीय (Genaral Universal) होइत छैक साहित्यक सत्य पींडीय (Individual Unique) होइत छैक। विज्ञानक मौलिक प्रक्रिया वि-अवयवीकरणक (Exclusion) होइ छै जखैन कि साहित्यक मौलिक प्रक्रिया अवयवीकरणक (Inclusion) होइ छै। सोचबाक गप्प जे, भूखक, शोषणक अर्थ, हत्या, अन्यायक जे अर्थ व्यावहारिक राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र वा विज्ञानमे होइ छै उएह आर ओतबे अर्थ की साहित्यो मे होइ छै? जाबे तक प्रगतिशील मूल्यबोध अपन संघात-समंजनक (Conflict Management) आंतरिक शक्तिक आधार पर स्वप्न, संघर्ष आ संघातमे सामंजस्यक संधान आ संस्थापन नहिं क लैत अछि ताबे तक प्रगतिशीलताक ऊपर वैज्ञनिकताक जानमारा लदनी करैत चलि गेनाई कतेक उचित से अवश्ये विचारणीय। एत एकटा भयंकर दुश्चक्र छै। दुश्चक्र ई जे वैज्ञानिकताक बिना संघात-समंजन संभव नहिं आ संघात-समंजन भेने बिना प्रगतिशीलतामे वैज्ञानिकताक आत्मिक विकासक समायोजन संभव नहिं। एहि दुश्चक्र के शुभचक्र मे बदलल जा सकै छै। कोना? एहि पर विचार आवश्यक; अखन नहिं त कखनो। अनुभवमे हेबे करत जे जाबे नीक विचार अपन डाँड़ सोझ करै छै, ताबे अधलाह विचार भरि गाम बुलि बैन द अबै छै।

मूल्य, बासन आ वस्तु
प्रगतिशीलताक अंतर्वस्तु समाज विकासक विभिन्न चरण मे भिन्न-भिन्न बासन मे हासिल होइ छै। विद्यापतिक साहित्यकेँ प्रगतिशील अंतर्वस्तुक लेल जे बासन उपलब्ध छलै उएह बासन डा. काञ्चीनाथ झा `किरण'जी क साहित्यक लेल उपयुक्त नहिं भ सकै छलै। स्वभावत: प्रगतिशीलताक जे बासन किरणजीक लेल उपयुक्त छलनि उएह बासनकेँ हुनक समकालीन वा परवर्त्ती साहित्यकार सभक लेल उपुक्त नहिंयो भ सकबाक गुंजाइश सदिखन बाँचल रहि जाइत अछि। प्रश्न उठि सकै छै जे प्रगतिशीलता वैयक्तिक मूल्य होइ छै आकि सामाजिक ? संक्षेप मे कह चाहै छी जे शास्त्रीय रूप सँ प्रगतिशीलता सामाजिक आ सामान्य मूल्य होइ छै मुदा जीवन मे ओकर प्रतिफलन वैयक्तिक होइ छै। समाज सँ व्यक्ति तकक यात्रा करैत प्रगतिशीलता मे सामाजिकक संगहिं वैयक्तिकताक प्रवेश होइ छै। साहित्य सँ जुड़ल लोककेँ ई बुझ पड़तै जे साहित्य विचार संचालित होइतो मुख्यत: भाव प्रेरित होइत छै। हिंदी कवि मुक्तिबोधक संदर्भ लैत कह चाहै छी जे साहित्यकेँ `विचारधाराक' संगहिं `भावधाराक' सम्मान करबाके चाही। मध्यकाल में भावनाक अनुरूपेँ भगवानक मूरत देखैक अवसर छलै। प्रगतिशील विचारकेँ भावनाक लेल एतेक जगह सुरक्षित रखबाके चाही। बासनक भिन्नता सँ वस्तु नहिं बदलि जाइ छै मुदा ई सभक अनुभव मे अछि जे भावना मे अंतर वस्तुक ग्रहणीयता मे अंतर आनि दैत छै। एकटा आरो तथ्यक ध्यान रखनाइ आवश्यक जे प्रगतिशीलताक पाट बड़ चौड़ा और चंचल होइ छै। जेना कमला अपन पाट आ बाट बदलैत एलीहे तहिना प्रगतिशीलताक पाट आ बाट सेहो बदलैत रहल छै। ताञ, प्रगतिशीलताक कोनो एकहि संस्करण के प्रामाणिक मानिक साहित्यक मूल्यांकन वा प्रगतिशील मूल्यक अन्वेषण ठीक नहिं। ई ठीक जे क्रंाति किस्त मे नहिं होइत छै, मुदा सर्वोच्च सामाजिक मूल्यक रूपमेँ प्रारंभे मे प्रगतिशीलताक साहित्य मे उपलब्धि कठिन आ कखनो समाज मे अंतर्घातक सेहो भ जाइ छै। समाज घोड़ा सँ बेसी ताँगाक कुदनाइ केँ कखनो नीक दृष्टि सँ नहिं देखैत छैक ▬▬ व्यंग्य करैत छैक जे घोड़ा नञ, कूदे ताँगा! सामाजिक उपलब्धि सँ बहुत बेसी मात्रा आ गुणत्मकता मे प्रगतिशीलताक साहित्य मे उपलब्धि साहित्यक सामाजिक स्वीकार्यता के अंतत: बाधिते करैत छै।

किरणजीक साहित्यमे प्रगतिशीलताक संधान मे ई ध्यानमे रखनाइ जरूरी जे विद्यापति साहित्यकेँ किरणजी उचिते मूल्यवान मानैत छलाह। परंपरा सँ संवाद करबाक किरणजीक कौशल सँ हुनकर प्रगतिशीलताक किछु आयाम अवश्ये स्पष्ट होइत अछि। किरणजी परंपराक पानि मे `परसल माए पाय तुअ पानि' क सावधानी आ क्षमायाची मुद्राक संग उतरैत छथि। विद्यापतिक संबंध मे बेसी किछु कहबाक ई अवसर नहिं तैयो कहबाक अनुमति चाहब जे विद्यापति नवजागरणक पहिल उत्तर-भारतीय स्वर छलाह। भारतीय नवजागरणकेँ अंग्रेजक शासन आ प्रभाव सँ जोड़िक देखल जाइ छै। तखन विद्यापति मे नवजागरणक तत्त्व के तकनाइ कि अगिया बेतालक काज? औपनिवेशिक मानसिकता सँ मुक्त भ नवजागरणक धाराक उत्सकेँ, चाहे ओ अपना गोमुख पर कतबो क्षीण वा अस्पष्ट किएक नहिं होइ, फेर सँ तकबाक चाही। ई ताकुत एहि दुआरे जरूरी जे विद्यापति सँ नावजागरणक जे आकांक्षा फूटल छलै ओकर विस्तार आ विस्फोटकेँ 1857क सामुदायिक एकता आ सक्रियता सँ जोड़िक देखल जा सकै छै। 1857क बाद नवजागरणक ओहि आकांक्षा पर औपनिवेशिक शक्ति अपन कब्जा जमा लेलक। एहि कब्जाक बाद, सुनियोजित ढंग सँ एकटा एहेन नवजागरणकेँ प्रोत्साहित कएल गेलै जाहि मे पुनर्जागरणक तत्त्व अधिक प्रमुखता सँ विकसित भेलै। नतीजाकेँ देश-विभाजनक रूप मे देखल जा सकै छै। देखल जा सकै छै जे जहिना असली राष्ट्रवादकेँ स्थानापन्न, अर्थात कुत्सित, राष्ट्रवाद सँ बदलि देल गेलै, तहिना असली नवजागरणकेँ स्थानापन्न, अर्थात कुत्सित, नवजागरण सँ बदलि देल गेलै। औपनिवेशिकता सँ अभिप्रेरित स्थानापन्न राष्ट्रवादक लेल ई स्थानापन्न नवजागरण बहुत सहायक भेलै। प्रसंगवश, अखन तक आलोचना भक्तिकेँ धर्म क पसिरक भीतरक घटना मानैत एबाक गलतीकेँ दोहरबैत आयल अछि। धर्मकेँ रहितौँ जँ भक्तिक सामाजिक आवश्यकता उपस्थित भेलै त निश्चिते रूप सँ भक्ति धर्मक परिसर सँ बाहरक एवं बाहर होइत जेबाक घटना थीक। एत, विद्यापतिक संदर्भ में ई कहनाइ जरूरी जे ओ अपन इष्ट के पतिभाव सँ कबीर, सखाभाव सँ सूरदास, दासभाव सँ तुलसीदास जकाँ नहिं बरन, सेवकभाव सँ उगना रूप मे सुमिरैत छथि। उग्रनाथक उग्रता के सैंतक उगना मे तत्त्वांतरण ओहि युगक एक क्रांतिकारी दुस्साहस के रूप मे चिन्हल जा सकैत अछि। बूझल जा सकैत अछि जे भक्तिक बासन मे विद्यापतिक वस्तु कोन रूपे प्रगतिशील छल। भक्ति साहित्य मूलत: सामंतवाद आ ताञ पुरोहितवाद सँ टकराक प्रस्फुटित भेल छल, मुदा आगाँ चलिक सामंतवाद आ ओकर पुरोहितवाद भक्तिकेँ अपना कब्जा मे ललेलक। एहि सांस्कृतिक संघर्ष आ वर्चस्वकेँ बुझ पड़त। मिथकक विनियोग मे विद्यापतिक काव्य-भंगिमा किरणजीक सामाजिक दृष्टिकेँ आकार दैत अछि।

किरणजीक साहित्य आ समाजक दृष्टि मूलत: नवजागरणक अंतर्वस्तु सँ बनल छैन। सामाजिक संबंध मे बदलावक लेल समाजक संरचनागत मूल्यबोधक पुनर्निर्माण नवजागरणक मौलिक माँग के रूप मे चिन्हल जा सकै छै। प्रगतिशीलताक एक संस्करण, समाजक संरचनागत मूल्यबोधक पुनर्निर्माण मे नहिं संपूर्ण बदलाव मे विश्वास करै छै। ध्यान देब जोगरक बात ई जे `पुनर्निर्माणकेँ' अपनेआप मे `बदलाव'क दिशा मे उठाओल गेल महत्त्वपूर्ण डेग क रूप मे स्वीकार कयल जा सकै छै। हालाँकि, एहि स्वीकारमे प्रगतिशीलताक आधिकरिक संस्करण सदैव संकोची रहल अछि। असल मे, सामाजिक संरचनागत मूल्यबोधक `पुनर्निर्माण' `बदलाव' मे गंभीर आ सातत्यमूलक संबंध होइ छै। `पुनर्निर्माण' `बदलाव' मे कोनो अनिवार्य तत्त्वगत अंतर्विरोध नहिं होइ छै, कम-सँ-कम प्रारंभिक अवस्था मे नहिं होइ छै। किरणजीक प्रगतिशील चेतना के बरोबरि पुनर्निर्माणक आंतरिक दबाव सँ गुजर पड़लै। एहि दबावक कारणेँ किरणजी परंपराक प्रामाणिक पाठ तैयार करबा में अपन अनुसंधित्सु वृत्ति के सदिखन जोतने रह पड़लैन। प्रगतिशील चिंतनधारा सँ प्रतिबद्ध लोककेँ आइ एहि निश्च्छल आत्मस्वीकारक आवश्यकता महसूस हेबाक चाही जे प्रगतिशील चिंतनधाराक मुख्य ऊर्जाक अधिकांशकेँ `पुनर्निर्माण' `बदलाव'क तत्त्वगत संबंध संस्थापन मे नहिं खरचि, संबंध-विच्छेद मे खरचबाक गलती दोहराएल गेल छै। सहजेँ लक्षित कएल जा सकै छै जे, जाहि समाज मे नवजागरणक अंतर्वस्तुक संस्थापन जते दूर तक भेनाई संभव भेलै ओहि समज मे प्रगतिशीलताक लेल ओहि अनुपात मे स्थान बनलै। किरणजी वस्तुत: विद्यापतिक साहित्य मे उठल नवजागरणक प्रश्न के अपना समय मे फेर सँ संबोधित छलाह। ई बात जरूर जे विद्यापतिक समय मे एहि प्रश्नक जे जटिलता छलै ताहि सँ बहुत बेसी जटिलता किरणजीक समय मे आबि गेल छलै। जाहि सामाजक मूल प्रश्नक सुनवाईकेँ बहुत दिन तक स्थगन मे रह पड़ै छै ओहि समाजक प्रश्न-ग्रंथि त ओहिना चोटाएल भ जाइ छै। किरणजीकेँ मैथिल समाजक चोटायल प्रश्न-ग्रंथिक रूप मे चिन्हल जा सकै छैन्ह। कबीर साहित्य के `फोकट का माल' वा `घेलुआ' कहि हजारी प्रसाद द्विवेदी जे गलती कयलनि हम ओहि तरहक गलती करैत ई त नहिं कहि सकै छी जे किरणजीक साहित्य हुनकर क्षमता वा अवदानक लावादुआ अछि, तहन, ई जरूर कह चाहैत छी जे किरणजीक साहित्यक महत्त्व हुनकर सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्निर्माण क उद्यमक भाव-साक्ष्य हेबा मे छै। सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्निर्माणक उद्यम हुनकर मुख्य अवदान अछि। एहि उद्यमक भाव-साक्ष्य साहित्यक दृष्टि निर्माणक एक महत्त्वपूर्ण मैथिल आधार भ सकै छै।

साहित्य मे प्रगतिशीलताक विनियोग

साहित्य मे शिव
मिथ जातीय स्वप्न आ चेतनाक संपुट होयबाक दृष्टि सँ महत्त्वपूर्ण होइ छै। सांस्कृतिक यथार्थ के अभिव्यक्त करबा लेल मिथ बहुत उपयोगी होइ छै। एहि उपयोग मे जोखिमो कम नहिं होइ छै। महादेव मैथिल चेतनाक अभिव्यक्तिक महत्त्वपूर्ण आलंबन छथि। भक्ति आ पूजाक अंतर के ध्यान मे रखबाक आग्रह करैत कह चाहब जे भक्तिकाल मे पाथर पूजन के बेर-बेर प्रश्न-बिद्ध कयल गेल छै। जाबे तक पाथर पूजनक पद्धति जारी रहतै ताबे तक ओ नाना प्रकार सँ प्रश्न-बिद्ध होइत रहत। किरणजी सेहो पूछनाइ नहिं बिसरैत छथि जे `बनैत छै, भोज्य पदार्थ / तै लोढ़ी सिलौटकेँ ओंघड़ाय / मंदिर मे पड़ल निरर्थक / पाषाण पिंडकेँ क्यो की करैत प्रणाम'1। एक स्तर पर ई प्रश्न अछि त दोसर स्तर पर ओ महादेवक मिथकीय रूप केँ मानवीयकरण एवं जन-एकताक साक्षात रूप मे सेहो स्थापित करै छथि, `हे नकुल! कुल मूलक अहंकारकेँ तोड़निहार / छी अहाँ जन-एकता सकार'2

कलियुगक संताप सँ त्रस्त एवं सतयुगक गुणगान मे लागल मैथिल समाज मे किरणजी कलियुगक समर्थन करै छथि। ककरा कहल जाय छै कलियुग, की छै कलियुगक लक्षण! डॉ. रामशरण शर्मा कहै छथि जे `ईसाक बादक तेसर शताब्दीक अंतिम चतुर्थांश सँ चारिम शताब्दीक प्रथम चतुर्थांशक पौराणिक पाठ्यांश सब सँ पता चलै छै जे आंतरिक संकटक कारण वर्णव्यवस्था मे टूट होम लागल छलै। एहि अवस्थाकेँ कलियुगक संज्ञा देल गेलै। कलि सँ लोकक उद्धार केनाइ राजाक पुनीत कर्त्तव्य बनि गेलै। ईसाक बादक 4 सँ 6 शताब्दीक अभिलेख सबमे स्पष्ट रूप सँ आर बादक पुरा लेख सबमे पारंपरिक रूप सँ राजाके वर्णधर्मक पोषक मानल गेल छै। पल्लव राजा सिंहवर्मनकेँ `कलियुग दोषावसन्न – धर्मोद्धारेण सन्नद्ध' (कलियुगक दोख सँ अवसन्न धर्मक उद्धारक वास्ते सन्नद्ध) विशेषणक प्रयोग कएल गेल छै।'3 `वर्णधर्मक पोषक' यदि राजा छलाह त ई निश्चते जे `वर्णधर्मक पोषण' राजनीतिक काज छल। किरणजी एहि राजनीतिक कार्यकेँ बुझैत कलियुगक समर्थन करै छथि। `कलि' क अर्थ `वर्णधर्म' मुक्त जन लेबाक चाही आ ताञ `कलियुग'क अर्थ `जनयुग' लेबक चाही। एहेन जनयुग जाहि मे, `सभकेँ भेटत विकासक अवसर / हेतै असली गुणक समादर / क्यो नहि बनतै भूदेव न डोम / केवल मानव / अप्पन भाग्य विधाता मानव / जै युगमे से मानव युग / असली सतयुग आबि रहल अछि / ई मानव कवि अपन धर्म बुझि / ओकरे स्वागत गाबि रहल अछि।'4 एहि तरहेँ किरणजी असली सतयुग के जनयुगक रूपमे चिन्है छथि। ध्यान सँ देखला सँ नवजागरण क पीड़ा एहि मानव धर्मक जन्मक प्रसव पीड़ा सँ उपमित बुझायत। अपना समय मे चंडीदास, रवींन्द्रनाथ समेत नवजागरणक बुद्धि पर्व एहि मानव धर्मक मर्म के बुझने रहए। किरणजी सेहो अपना समय मे एहि मानव धर्मक जन्मक सोहर गबैत छथि। जाञ `वर्णधर्मक पोषण' राजनीतिक काज छल, ताञ मानव धर्मक जन्म सेहो राजनीतिके कार्य भ सकैत छल।

परंपराक समझ आ प्रगतिशील तत्त्वक नवोन्मेषण क उद्यम प्रमुख सांस्कृतिक दायित्व होइत छैक। संस्कृति मे पुनर्नवीकरणक आत्म-प्रक्रिया सतत जारी रहैत छैक। अपना समयमे विद्यापति नवताक आकांक्षा व्यक्त करैत पुनर्नवा संस्कृति के नित-नित नूतन होयबाक प्रक्रिया के चिन्हने रहैथ। किरणजीक साहित्य मे एहि नवताक प्रसार समाजमे होयबाक आकांक्षा अंतस्सलिला के रूपमे सर्वत्र भेट सकैत अछि। परंपराक जटायल सूत्र के सोझरबैत ओ प्रगतिकारी सामाजिक संरचना के महत्त्व के बूझि सकैत छलाह।

खंडित समाज मे
स्वतंत्रता-समानता-सहोदरता-प्रगतिशीलता
किरणजीक जन्म 1906 मे भेल छलैन। ई बात रेखांकित भेल अछि जे 1930 अर्थात 24 बरखक वयस मे बनारस प्रवासक दौरान हुनकर व्यक्तित्व मे एकटा पैघ परिवर्तन भेलैन। इएह परिवर्तन किरणजीक व्यक्तित्वक स्थाई आ मूल्यवान रूप के गठित केलकैन। 1930 तक भारतीय राजनीतिक स्वाधीनता आंदोलन जनआंदोलन में बदलि चुकल छल। प्रगतिशील आंदोलनक सुगठित वा संगठित रूप प्रकट नहिं भेल छल। मुदा, परंपरा आ आधुनिकता मे संवाद आ कखनो-कखनो संघात सेहो उपस्थित भेनाइ प्रारंभ भ चुकल छल। हिंदी मे जयशंकर प्रसादक `कामायनी' आ प्रेमचंदक `गोदान'क लेखन नहिं भेल छल। प्रगतिशील लेखक संघ वा PWA क गठन नहिं भेल छल। स्वाधीनता आंदोलनक ऊपरी चरित्र गाँधीवादी विचार दर्शन सँ संघटित छल। गाँधी दर्शनक औजार-पाती मध्यकालक मूल्यबोध सँ बनल छलैक। मध्यकालक मूल्यबोध सेहो अपना समयक परंपरा सँ टकराक विकसित भेल छल आ गाँधी जीक समय मे अपने परंपरा बनि गेल छल। मुदा ई ध्यान मे रखनाइ आवश्यक जे स्वाधीनता आंदोलनक ऊपरी चरित्रक अंत:करण मे विकसित भेल मूल्यबोध अपन बनावट मे बहुत अधिक संश्लिष्ट छलैक। एहि संश्लेषक एक रूपकेँ नेहरूक उपस्थितिक आलोक मे पढ़ल जा सकैत अछि। रूपक मे अपन बात कहबा मे किछु सुविधा होइत छै, त किछु जोखिम सेहो रहै छै। जोखिम उठाक सुविधा लैत कह चाहै छी जे गाँधी जी भारतीय स्वाधानीता आंदोलनक परंपरा पक्ष, त नेहरू जी ओकर प्रगति पक्ष छलाह। 1930 तक पाकिस्तानक माँग उठि चुकल छल, दलित एवं पिछड़ल समाज आजाद होइत भारत मे अपन स्थितिक विषय मे चिंतित छल। गाँधीजीक हरिजन प्रेम अखन पूर्ण रूप सँ सामने नहिं आयल छल। आजाद भारत मे देसी राज-रजवाड़क होबवाला स्थिति बहुत साफ नहिं भेल छलै। औपनिवेशिकताक अंत आ जनतंत्रक आविर्भावक क्षीण संभावना इतिहासक सतह पर उभरि रहल छलै। किरणजी क लेल आजादीक अर्थ एक स्तरीय नहिं बहुस्तरीय रहैन। ओ ब्रिटिश शासन सँ आजादीक संगे मिथलाक राजतंत्र सँ मुक्तिकक मर्म के सेहो बुझैत छलाह, `विश्व के थर्रा रहल अछि, एक जर्मनकेर सिपाही / हस्तगत अछि एक व्यक्तिक, आइ रोमक बादशाही / कर्म्मबलसँ एक कुल्ली, ब्रिटिसकेर साम्राज्य साजल / तही ब्रिटिसक दास नृपतिक हम रहै छी पाछु लागल / धिक्धिगति ओहि बुद्धिकेँ जे लोककेँ कायर बनाबै / त्यागि उद्यम, पेट हेतुक, भीख खुस-आमद सिखाबै / उठू मैथिल युवक, युगमे कर्मयोगक शंख बाजल / विश्वविजयी संगठन बल पाबि जनता सैन्य साजल / रहि सकल नहिं जारसाही मूल सह सुलतान गेला / जनमतक प्रतिकूल चलि इंगलैंडपति पेरिस पड़ैला / नव युगोदय भेल अछि, नरनाथ छथि नर-नाथ लागल / एहू जनतातंत्र युगमे ``किरण'' की रहबे अभागल'5

विद्यापतिक भूमिक भौतिक, राजनीतिक विपन्नता त अपना जगह सांस्कृतिक धरोहर आ बौद्धिक प्रखरताक निस्तेज भ गेनाइ किरणजीकेँ मर्माहत करैत छैन। जे संतति अपन वर्तमान के नहिं बचा सकैत अछि ओ अपन प्रांजल अतीतो सँ पे्ररणा नहिं लय सकैत अछि, किरणजी एहि सत्य के नीक जकाँ बुझैत छलाह। मुदा एतबा बुझनाई पर्याप्त नहिं, किरणजी एहि बात के सेहो बुझैत छलाह। से जँ नहिं बुझितैथ तँ ओहो इतिहासेक गली मे बौआइत रहितैथ। ओहि युग मे अतीतक पुनर्गठन एकटा सामान्य प्रवृति छल। बहुत रास लोक एहि अतीतक खोज मे अति प्राचीनकाल तकक यात्रा पर निकलला जाहि मे सँ बहुतोक वर्तमान मे वापसी संभव नहिं भेलनि। किरणजीक अपन चेतनाक संग विद्यापति तक पहुँचि अपन वर्तमान आ भविष्य तक निरंतर यात्रा करैत छथि। अतीत, वर्तमान आ भविष्य क ई त्वरित आवा-जाहीक क्षमता किरणजीक प्रगतिशीलताक पुष्ट प्रमाण अछि। ओ विद्यापति तक पहुँचै छैथ मुदा ओत बस लेल नहिं। बरन, विद्यापतिकेँ अपना देशकाल मे अयबाक नोत देबाक बास्ते ओ विद्यापति तक पहुँचै छैथ। विद्यापति के अपना एहि ठाम बजेबा मे हुनका मर्मांतक संकोच होइत छैन। एहि संकोचक मर्मकेँ उपलब्ध केनाई मैथिल समाजक लेल आइयो कठिनाह अछि, `अछि सूखल नयन नदी हियमे मरुभूमिक घोर बिहाड़ि बहय। / मधु-कानन के सुकुमार सखा कविकोकिल, हाय, बजाउ कतय? / ..../ मिथला-मृदु-भाषा-काननमे, अपने जे रोपल काव्यलता / छल, टूटि पड़ल बंगीय भ्रमर, जनि देखि मनोहर मंजुलता / अछि सूखि रहलि से भूमि खसलि, आसार बिना आधार बिना। / नव कोरक हाय, फलैत कोना? जननी तनमे रसधार बिना?'6

सामाजिक परिवर्त्तनक स्वाभाविक प्रक्रियाक अंतर्गत नव परिस्थति मे संवेदनात्मक आकांक्षाक संधान आ नव स्वप्नक सामाजिक संस्थापन किरणजीक साहित्यकेँ महत्त्वपूर्ण बनबैत छैन। किरणजीक साहित्य मे तत्कालीन भारत मे चलि रहल राजनीतिक संघर्षक सामाजिक प्रतिफलनक स्वप्न केँ सामाजिक संवेदना सँ जोड़बाक कौशल छैन। महत्त्वपूर्ण ई जे संगहि मैथिल अस्मिताक स्वायत्तताक प्रति संवेदनप्रवण सजगता सेहो छैन (`कतेक दिनक बाद / उगल छी हे मिहिर मिथिलाकेर / छलहुँ कतय नुकैल?/ ... अथवा धयले छलहुँ की राजनैतिक कोनो पार्टी / जाहिसँ पदलोभ रोगग्रस्त / छलहुँ की भय गेल ? आ ताञ छल भेल बाँतर / मिथलाक सङ सम्बन्ध ? / हम व्याकुलमना औनाइत / नोरायल नयने छलहुँ बाट तकैत चारुकात। / अछि अनेको सूर्य्य जगमे / बड़का टटा, बड़ तेज / मुदा हमर गोसाउनिक सीर लग घेंसिऐल / हृदयक ग्रहमे सन्हिऐल / जे अन्हार अछि तकरा / कय नहि सकैत दूर आन `प्रकाश' / व्यर्थ भय रहलैन, जीवन-यत्न / `योगी' महात्माकेर। / अहाँ छी अप्पन सहोदर। / एक जीवन स्रोत / एक लक्ष्य पुनीत / केहनो रहत तन / पुष्ट वा दुबरैल / मैल वा माजल सजावल / हमर शोणित-स्नेह / अहाँकेर पाथेय बनैक निमित्त / अछि सतत तैयार।'7 एहि भाव-सघन आ विचारपुष्ट काव्यांश के बेर-बेर ध्यान सँ पढ़नाइ आवश्यक अछि। राजनीतिक लोकक प्रति किरणजीक ई सोचनाई जे `अथवा धयले छलहुँ की राजनैतिक कोनो पार्टी / जाहिसँ पदलोभ रोगग्रस्त / छलहुँ की भय गेल ? आ तञ छल भेल बाँतर / मिथलाक सङ सम्बन्ध ?' पुनर्विचारक अपेक्षा रखैत अछि। ई अपेक्षा आर गंभीर बुझना जाएत यदि एकरे संगे इहो ध्यान मे राखि सकी जे, `अछि अनेको सूर्य्य जगमे / बड़का टटा, बड़ तेज / मुदा हमर गोसाउनिक सीर लग घेंसिऐल / हृदयक ग्रहमे सन्हिऐल / जे अन्हार अछि तकरा / कय नहि सकैत दूर आन `प्रकाश' '। एहि `आन प्रकाश' के चिन्ह पड़त। `आन प्रकाश'क अर्थकेँ `व्यर्थ भय रहलैन, जीवन-यत्न / `योगी' महात्माकेर।' के बुझने बिना खोलल, अर्थात डिकोड नहिं कएल जा सकैत अछि। `मिहिर मिथिलाकेर' के छलाह वा छैथ सेहो ठीक केनाई जरूरी। वर्ग विभाजित समाज मे नहिं त प्रगतिशीलता आ स्वतंत्रता अखंडित रहि सकैत अछि आ नञ समता आ सहोदरताक भावे अखंडित रहि सकैत अछि। किरणजी मैथिल समाजक पुनर्गठनक लेल स्वप्नशील छलाह। मैथिल समाज जाति-पाँति, जाति-पाँजि, सोति-भलमानुष-जबार, ऊँच-नीच, धनी-निर्धन, धर्म-संप्रदाय सँ घनघोर आत्म-विखंडनक अवस्था मे छल। आत्म-विखंडनक ई स्थिति सामाजिक पनुर्गठन मे पैघ बाधक छलै। आ ताञ किरणजी जाति-पाँतिक, जाति-पाँजिक, सोति-भलमानुष-जबारक, ऊँच-नीचक, धनी-निर्धनक, धर्म-संप्रदायक विरुद्ध छलाह। किरणजीक समाजिक समयक सीमाकेँ ध्यान मे नहिं रखनाई अन्याय होएत। हम आइ सर्वत्र हुनका सँ अनिवार्यत: सहमते होइ, से आवश्यक नहिं। कतौ-कतौ कोनो तात्कालिक दबाव हुनका इतिहासक गलत व्याख्या तक सेहो ल गेल छैन, हालाँकि एहेन अपवादे स्वरूप भेल छै, मुदा भेल छै, जेना, 1956 मे रचित आ कविता संग्रह `कतेक दिन बाद' मे संकलित कविता `ताजमहल'। तात्कालिकताक कोनो दुर्वह दबाव मे इतिहासक गलत समझ पर लिखल कविता क अपवादात्मक उदाहरण बुझना जाइत अछि।

किरणजीक व्यक्तित्वक नाभिकीय बिंदु हुनकर आंदोलन धर्मिता में छैन। किरणजी सन आंदोलनधर्मी रचनाकारक प्रगतिशीलता साहित्यक गुणक रूप मे बाद मे पठनीय होइत छैक, पहिने पठनीय होइत छैक आंदोलन कर्म मे। आंदोलन आ रचनाक संबंध दू कोण सँ बूझल जा सकैत अछि। अधिसंख्य रचनाकरक प्रगतिशीलताकेँ रचना मे पढ़ल जा सकै छै। बहुत कम रचनाकरक प्रगतिशीलताकेँ आंदोलन कर्मक धधकैत आलोक मे पढ़ल जा सकै छै। किरणजीक प्रगतिशीलताकेँ धधकैत आलोके मे पढ़ल जा सकै छै। किरणजीक आंदोलन कर्म के बुझवा लेल हुनकर काव्य सँ पर्याप्त प्रकाश भेटनाइ संभव नहि। वस्तुत:, किरणजीक आंदोलनधर्मिता हुनक साहित्य के बुझवाक हुनर द सकैत अछि। एहि लेल किरणजीक प्रामाणिक जीवनी के तैयार केनाई जरूरी। एहि सँ हुनकर अवदानक त पता चलबे करत संगहिं बीसम सदी मे मिथिलांचल मे चलल सामाजिक आंदोलन आ मैथिल नवजागरण आंदोलनक किछु सूत्र केँ सेहो पकड़ल जा सकैत अछि। `अछि सूखल नयन नदी हियमे मरुभूमिक घोर बिहाड़ि बहय' मैथिल जीवनक संगहिं किरणजीक व्यक्तिगतो जीवनक व्यथाक कथा कहैत अछि। एहेन व्यथाग्रस्त जीवन मे प्रगतिशीलताक रक्षा, प्राणरक्षे टा सँ समतुल्य भ संभव भ सकैत अछि।

बीसम सदी मे प्रगतिशीलताक रक्षा मे सक्रिय संगठन आ विचारधाराक द्वंद्व के बुझबा मे सेहो किरणजीक संघर्ष सँ मददि भेट सकैत अछि आ एक्कैसम सदी मे एहि दिशा मे होमवाला संभावित प्रयासकेँ सेहो मददि भेट सकैत अछि। ध्यान मे अछि जे प्रगतिशील विचारधारा मे स्वभावत: वैज्ञानिकताक आग्रह रहै छै। धर्म आ विज्ञान मे एकटा अंतर ई कहल जाइत छैक जे धर्म मे पूर्व प्रमाण होइत छैक जखन कि विज्ञान मे उत्तर प्रमाण होइत छैक। प्रगतिशीलतोक संदर्भ मे पूर्व नहिं उत्तर प्रमाण होइ छै। किरणजीक प्रगतिशीलता के बूझब आ बचायब आ ताहू सँ बेसी आगू बढ़ायब आइ एक महत्त्वपूर्ण दायित्व अछि। किरणजीक प्रगतिशीलता केँ अजुका मैथिल समाजक आ टटका मैथिली साहित्यक प्रगतिशील अवस्थाक आलोक मे पढ़नाई अधिक जरूरी अछि। किछु शुभ छै, त किछु अशुभ छै, मुदा ई सत्य जे उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरणक समय मे जखन राजनीतिक राष्ट्र प्रत्याहार-सन्निपात (Withdrawal Syndrome)सँ ग्रस्त भ रहल अछि, दुनियाक सामाजिकता सब मे अपन पुनर्गठनक ललक फेर जोर पकड़ि रहल छै। मैथिल समाज मे अपन पुनर्गठनक कतेक ज्ञान, इच्छा आ क्रिया सक्रिय भ सकतैक से अवश्ये चिंता आ चिंतनक विषय। स्वतंत्रता-समानता-सहोदरता-प्रगतिशीलता अखंडित आ अविभाज्य मूल्य होइ छै। खंडित समाज मे त एकर सपनो अखंडित नहिं रहि पबैत छै। ताञ, आइ नहिं, काल्हि मैथिल समाजकेँ खत्तो उपछ पड़तै आ माछो मार पड़तै। विश्वास अछि, जे जहिया कहियो मैथिल समाज नवोन्मेषक आंतरिक प्रक्रिया सँ गुजरबाक बास्ते राजनीतिक रूप सँ अपन अस्मिता केँ पुनर्गठित करबा लेल डाँड़ कसत ओकरा किरणजीक सांस्कृतिक प्रगतिशीलता एक महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शक के रूप मे प्रतीक्षा करैत अवश्ये भेटतै। किरणजीक सांस्कृतिक प्रगतिशीलता महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शक के रूप मे, सभा मे जँ नहिंयो भेटै त मार्ग मे अवश्ये भेटतै।

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संदर्भः
1.डॉ काञ्चीनाथ झा 'किरण': कतेक दिनक बादः माटिक महादेव, 1956
2.डॉ काञ्चीनाथ झा 'किरण': कतेक दिनक बादः जय महादेव, 1956
3.रामशरण शर्माः प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संसथाएँ : परिशिष्ट-2, गोपति से भूपतिः राजकमल प्रकाशन, 5वीं आवृत्ति 2001
3.डॉ काञ्चीनाथ झा 'किरण': कतेक दिनक बादः सतयुग, 1955
4.डॉ काञ्चीनाथ झा 'किरण': कतेक दिनक बादः , 1956
5.डॉ काञ्चीनाथ झा 'किरण': कतेक दिनक बादः युवक सँ, 1939
6.डॉ काञ्चीनाथ झा 'किरण': कतेक दिनक बादः विद्यापति, 1940
7.डॉ काञ्चीनाथ झा 'किरण': कतेक दिनक बादः कतेक दिनक बाद (रचनाकाल अनुल्लिखित)