कविता मनुष्य की मूल वृत्ति है, कहानी और नाटक भी। फिर से और फिर-फिर कहे-सुने जाने की अपेक्षा कविता से रहती है। फिर क्या हुआ, उसके बाद फिर क्या हुआ को फिर कहे-सुने जाने की अपेक्षा कहानी से रहती है। फिर-फिर और फिर क्या हुआ कहे-सुने जाने को सलीके से प्रस्तुत करने की अपेक्षा नाटक से होती है। जिस कविता के पीछे किसी कहानी और साथ में किसी नाटक (नाट्य) के होने की गुंजाइश नहीं होती वह कविता प्रायः कमजोर होती है। उसी प्रकार जिस अभिव्यक्ति में काव्यतत्त्व नहीं होता उसका रमणीय और स्मरणीय होना मुश्किल होता है। फिल हाल बात कविता पर करनी है। वह भी आज की कविता पर। यह कठिन है खास कर तब, जब बात अतिसंक्षेप में कहनी हो।
थोड़ा-सा ऐतिहासिक प्रसंग। प्रगतिशीलता के आग्रह में मेगा टेक्स्ट या वृहद आख्यान से मुक्ति का अपना प्रसंग जोरदार रहा है। रामायण और महाभारत हमारे दो मेगा टेक्स्ट या वृहद आख्यान रहे हैं। इनके समांतर बौद्ध जातक कथा सहित सिद्ध-नाथ का भी मेगा टेक्स्ट या वृहद आख्यान के रूप में जबर्दस्त प्रभाव रहा है। ये मेगा टेक्स्ट या वृहद आख्यान आपसे में मिलते भी रहे हैं, भिड़ते भी रहे हैं। ये एक दूसरे का विस्तार भी हैं और विकल्प भी। बात दूसरी दिशा न पकड़ ले, इसलिए फिलहाल इसे यहीं छोड़ते हैं। जितनी भी महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कृतियाँ आईं वे किसी न किसी रूप में इन से जुड़कर प्राणरस पाती थी और कथ्य को रसाती रहती थी। हमारी समाजिक व्यवस्था या कह लें अव्यवस्था की विभिन्न रसौलियों की पीड़ाओं या पीड़कों से पीड़ितों के सीधे टकरावों से बचने में ये मेगा टेक्स्ट या वृहद आख्यान मददगार साबित होती थी। इन से मुक्ति के बिना प्रगतिशीलता की आकांक्षा पूरी नहीं हो सकती है।
मैथिलीशरण गुप्त ने कहा राम तुम्हारा जीवन स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाये सहज संभाव्य है। यह कथन मेगा टेक्स्ट या वृहद आख्यान की अनिवार्यता और प्रगतिशीलता की अपर्याप्तता की ओर संकेत है। कविता में छंद होती है। लेकिन इसे इस तरह समझा जाता है कि कविता छंद में होती है। जरा रुक कर इन दोनों बातों के अंतर को समझना चाहिए। मेगा टेक्स्ट या वृहद आख्यान की मिट्टी हो और छंद का साँचा हो तो कविता सहज संभाव्य हो जाती है। प्रगतिशीलता ने इस सहज संभाव्य के उत्तर और इतर कठिन रास्ता चुना क्यों कि रमणीयता और स्मरणीयता से सीमित न होकर वह सामाजिक परिवर्त्तनीयता की आकांक्षा से जुड़ चुकी थी। जाहिर था, उसने मेगा टेक्स्ट या वृहद आख्यान को भी छोड़ा और छंद के बने-बनाये साँचे को भी। मेगा टेक्स्ट या वृहद आख्यान की जगह उसने आसपास के जीवन के टेक्स्ट को पकड़ना शुरू किया। छंद के बदले लय का दामन थामा। छंद का मर्म कवि के काबू में न हो तो वह छल में बदल जाता है। सामाजिकता के अंतर्लय को काव्य लय का नियामक बनाने में कवि दक्ष न हो तो कविता भाषा में प्रलय के आस-पास पहुँच जाती है।
प्रगतिशीलता की आकांक्षा रमणीयता और स्मरणीयता से सीमित न होकर वह सामाजिक परिवर्त्तनीयता की आकांक्षा से जुड़ी तो सही लेकिन यहाँ एक गड़बड़ी हो गई। गड़बड़ी यह कि लगभग चुपके से सामाजिक परिवर्त्तनीयता की कठिन आकांक्षा अपेक्षाकृत आसान राजनीतिक परिवर्त्तनीयता की आकांक्षा में बदल गई। इस आसान राह को चुनना बहुत कठिनाई देने लगा। प्रसंगवश इसे आलोचना की विफलता या शरारत या दोनों के रूप में भी देखा जा सकता है।
आज के कवियों की और कविताओं पर नाम लेकर टिप्पणी करना यहाँ उचित भी नहीं है और अपेक्षित भी नहीं। समग्र रूप से यह कहना जरूरी है कि हम जिन्हें (कविताओं को) रचने के दंभ में कभी-कभी जीने लगते हैं, वे कविताएँ नहीं होती हैं बल्कि महज काव्याभास होती हैं। कविता लिखने के आयास और अभ्यास के क्रम में आई कवितानुमा कुछ उक्ति। कविगण बुरा न मानें। कविता व्यष्टि और समष्टि को एक साथ संबोधित होती है और हक और न्याय ही उसका पक्ष होता है। रघुवीर सहाय के शब्दों में कहें तो कविता का अपना मोर्चा। शायद आज की कविता का अपना मोर्चा ही खो गया है। कविता युनिवर्सिटी की तरफ बढती गई। युनिवर्सिटी में छात्र आत्महत्या कर रहे, सभी नहीं। युनिवर्सिटी में अध्यापक धतकर्म कर रहे, सभी नहीं। जो कह रहे वे आज की कविता को कचरा के ढेर में बदल कर रख देने पर आमादा हैं, भूल गये हैं मुक्तिबोध की चेतावनी को कि दुनिया कचरे का ढेर नहीं जिस पर चढ़कर बाँग देकर कोई मसीहा बन जाये। हम जिन्हें कवि रूप में अपने आसपास देखते हैं. उन में से अधिकांश मुक्तिबोध के शब्दों में, ‘’उनके चित्र/ समाचारपत्रों में छपे थे,/ उनके लेख देखे थे,/ यहाँ तक कि कविताएँ पढ़ी थीं/ भई वाह!/ उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक जगमगाते कवि-गण/ मन्त्री भी, / उद्योगपति और विद्वान/ यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात/ डोमाजी उस्ताद/ बनता है बलवन/ हाय, हाय!!
हाय, हाय! कुछ ढंग का कह भी न पाया और फिर अधूरा भी क्या करूँ...
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सोमवार, 20 मार्च 2017
कविता मनुष्य की मूल वृत्ति है
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