नब लिख चाहैत छी। पुरान के बिसर चाहैत छी! ई कोना हेतै। बिन बिये त ने चास ने बास! पुरना के बिसरा क नै, सड़ा क नव दाना अबै छै। इएह थिकै संस्कृति-चक्र! पुरने के नै कखनो काल स्वयं के सड़ेबाक सहास आ बेगरता ठाढ़ भ जाइत छै! जे स्वयं के नहिं सड़ा पाबैत छैथ से अपन रचनाशीलता क उत्तरोत्तर चरण मे नहिं पहुँच सकैत छैथ। ई थिकै सृजन-चक्र! संस्कृति-चक्र आ सृजन-चक्र क दंद स बाहर चक्कर चलेबाक लंद-फंद मे लागल रहला स पद पुरस्कार कने मने भेटियो जाए मुदा ई भेट भटका क अपटी खेत में मारि देत आ ओ नहि प्राप्त हैत जे पाबै लेल सृजन-पथ पर पहिल डेग देने रही। ई ठीक, जे जतै डेगाडेगी शुरू करैए लोक जिनगी भरि ओतै डेगगिंजी नै करैत रहैए। मुदा आगू बढ़ लेल, आत्म-सृजनक लेल आत्म-ध्वंस जरूरी, सेहो संस्कृति-चक्र आ सृजन-चक्रक दंद क बीच बाटे। आब ई त हमरा पर अछि जे एहि दंद स स्वयं के जोड़ै छी, किंवा अपन लंद-फंद स स्वयं के नछोरै छी! समस्या त कठिन छौ बौआ लाल!
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